________________
२६०
श्रमण भगवान् महावीर अश्वग्रीव ने सम्पूर्ण सैन्य के साथ पोतनपुर पर चढ़ाई कर दी । त्रिपृष्ठ आदि भी अपनी सेना के साथ देश की सीमा पर जा डटे । दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध शुरू हुआ और पहले ही दिन युद्धभूमि रक्तरंजित हो गई । निरपराध जीवों का यह संहार त्रिपृष्ठ को अच्छा न लगा । उसने अश्वग्रीव के पास दूत भेज कर कहलाया-कल से मैं और तुम दो ही युद्ध में प्रवृत्त हों तो बहुत अच्छा । निरपराध जीवों को मरवाने से क्या लाभ है ?
अश्वग्रीव ने त्रिपृष्ठ का प्रस्ताव मंज़र किया और रथों में बैठ कर अपने अपने मोरचों से निकल कर दोनों परस्पर भिड़ गये । घंटों लड़े और खूब लड़े फिर भी मैदान दोनों का रहा । अश्वग्रीव ने देखा कि सब शस्त्र खत्म हो गये हैं फिर भी शत्रु मैदान में डटा हुआ है । उसने अपने चक्रनामक अमोघास्त्र को सँभाला और उठा कर त्रिपृष्ठ पर जोरों से फेंका । अश्वग्रीव का विश्वास था कि इसके एक ही प्रहार से उसका काम पूरा हो जायगा । पर परिणाम विपरीत निकला । चक्रधार की तरफ़ से न लग कर तुम्बे की तरफ से त्रिपृष्ठ के वक्षस्थल पर गिरा । त्रिपृष्ठ ने उसे पकड़ लिया और उसी से अपने शत्रु का सिर उड़ा दिया । तत्काल आकाशवाणी हुई—'त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव प्रकट हो गया ।'
सब राजाओं ने त्रिपृष्ठ की वश्यता स्वीकार की और आधे भारतवर्ष को अपने अधीन करके उसने वासुदेव का पद धारण किया ।
चौरासी लाख वर्ष का आयुष्य पूरा करके त्रिपृष्ठ सातवीं नरकभूमि में तेंतीस सागरोपम की आयुष्य-स्थितिवाला नैरयिक हुआ । बीसवाँ, इक्कीसवाँ और बाईसवाँ भव
नरक से निकलकर बलाधिक का जीव सिंह हआ और वहाँ से मर कर फिर नरक में गया । नरक से निकलने के बाद बलाधिक का जीव कुछ समय तक संसार में भटक कर अन्त में मनुष्य' हुआ ।
१. इस मनुष्य का नाम क्या था, आयुष्य कितना था और किन शुभ कृत्यों से चक्रवर्ती पद के योग्य पुण्य उपार्जन किया था----इन बातों का खुलासा नहीं मिला ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org