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प्रवचन
२३९ जो ज्ञानी तथा धीर हैं वे ही निवृत्ति के मार्ग में रहते हुए भी कर्मों का क्षय कर देते हैं और लोभ तथा अहंकार से दूर रह कर नये पाप कर्मों से बचते हैं ।
वे ज्ञानावरणीयादि कर्मों को तोड कर त्रिकालज्ञानी हो लोकवर्ती सब पदार्थों को जानते, मोक्षार्थियों के नायक बनते और स्वयंबुद्ध हो कर कर्मों का नाश करते हैं । वे स्वयं ऐसा कोई कार्य नहीं करते और न अन्य से कराते हैं जिसमें प्राणी-हिंसा की शंका भी हो । वे इन्द्रियों को वश में रखते हुए आत्म-साधना में निरन्तर लगे रहते हैं और धीर हो कर ज्ञानमार्ग में विचरते हैं ।
ज्ञानी सूक्ष्म-बादर सभी देहधारियों को आत्मतुल्य मानते हैं और इस महान् लोक को जीवाकीर्ण जानते हुए अप्रमादी हो कर विचरते हैं ।
जो स्वयं अथवा दसरों के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करते हैं वे अपना और दूसरे का भला करने में समर्थ होते हैं । जो विचारपूर्वक धर्म को प्रकट करना चाहे वह ऐसे ज्योतिर्धरों के पास सदा निवास करे ।
__ जो आत्मा और लोक को जानता है, जो जीवों की गति-आगति को जानता है, जो शाश्वत-अशाश्वत को जानता है, जो जन्म-मरण को जानता है, जो उत्पत्ति-पुनर्जन्म को जानता है और जो आस्रव-संवर-दुःख-निर्जरा को जानता है वही क्रियावाद का उपदेश करने का अधिकारी है ।
क्रियावादी न मनोहर शब्द-रूपादि इन्द्रियार्थों में आसक्त हो, न बुरे गन्धरसादि विषयों का द्वेष करे, न जीवित की इच्छा करे और न मरण की । सर्वभावों में समदृष्टिवाला हो कर्मों से बचता हुआ निष्कपट बन कर विचरे । पुण्डरीक-दृष्टान्त
आयुष्मान् भगवान् के श्रीमुख से पुण्डरीक का दृष्टान्त इस प्रकार मैंने सुना है—एक जल और दलदल से परिपूर्ण बड़ी सुन्दर झील है । उसमें
१. सूत्रकृताङ्ग अध्ययन १२, प० २११-२२४ ।
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