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प्रथम परिच्छेद शिष्य-सम्पदा
जैन आगमों के लेखानुसार भगवान् महावीर के इन्द्रभूति आदि चौदह हजार श्रमण-शिष्य थे ।
भगवान् ने अपनी श्रमणसंस्था को व्यवस्था-सौकर्य की दृष्टि से नौ 'गणों' में बाँट दिया था और इसके नियमन के लिए ग्यारह प्रधान शिष्यों को नियत किया था जो 'गणधर' नाम से प्रसिद्ध थे ।
प्रथम सात गणों का एक-एक गणधर था, परन्तु आठवें और नवें गण के दो दो गणधर थे । इस प्रकार श्रमण भगवान् के नौ श्रमणगणों के अधिकारी ग्यारह गणधर थे जिनको भगवान् ने अपने केवलज्ञान के दूसरे दिन वैशाख शुक्ला एकादशी को नियत किया था ।
भगवान् महावीर के ये सभी गणधर गृहस्थाश्रम में भिन्न-भिन्न स्थानों के रहनेवाले जात्य ब्राह्मण थे । पावामध्यमा निवासी सोमिलार्य ब्राह्मण के आमंत्रण से वे अपने-अपने छात्रगण के साथ वहाँ आये थे और भगवान् महावीर की धर्मसभा में जाकर उनके शिष्य बने थे । और सभी गणधर राजगृह के गुणशील चैत्य में मासिक अनशन के अन्त में आयुष्य पूर्णकर निर्वाण प्राप्त हुए थे।
गणधरों के जीवन आदि का संक्षिप्त वृत्तान्त हमें कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति आदि सूत्रों में मिलता है, जिसका सारांश देकर हम इनका परिचय करायेंगे ।
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