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तीर्थंकर-जीवन
अन्यतीथिक-आर्यो ! तुम्हारा मत तो यह है कि गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमाण अव्यतिक्रान्त और राजगृह को संप्राप्त होने का इच्छुक असंप्राप्त है।
स्थविर-आर्यो ! ऐसा मत हमारा नहीं है। हमारे मत में तो गम्यमान गत, व्यतिक्रम्यमाण व्यतिक्रान्त और संप्राप्यमाण संप्राप्त ही माना जाता है ।
इस प्रकार स्थविर भगवन्तों ने चर्चा में अन्यतीर्थिकों को परास्त करके वहाँ 'गति-प्रवाद' नामक अध्ययन की रचना की । अनगार कालोदायी के प्रश्न-(१) अशुभ कर्मकरण विषय में
उस समय भगवान् महावीर को वन्दन करके अन्गार कालोदायी ने पूछा-भगवन् ! जीव दुष्ट फलदायक अशुभ कर्मों को स्वयं करते हैं, यह बात सत्य है ?
महावीर-हाँ कालोदायिन् ! जीव अशुभ फलदायक कर्मों को करते हैं, यह बात सत्य है ।
कालोदायी-भगवन् ! जीव ऐसे अशुभ विपाक-दायक पाप कर्म कैसे करते होंगे ?
महावीर-कालोदायिन् ! जैसे कोई मनुष्य मनोहर रसवाले अनेक व्यञ्जन युक्त विषमिश्रित पक्वान्न का भोजन करता है तब उसे वह पक्वान्न बहुत प्रिय लगता है। उसके तात्कालिक स्वाद में लुब्ध होकर वह प्रीतिपूर्वक खाता है, परन्तु परिणाम में वह अनिष्टकर होता है । भक्षक के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि पर वह बुरा प्रभाव डालता है । इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीव जब हिंसा करते हैं, असत्य बोलते हैं, चोरी करते हैं, मैथुन करते हैं, वस्तु-संग्रह करते हैं, क्रोध, मान, कपट, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, परपरिवाद, मायामृषावाद और मिथ्यात्वशल्य आदि का सेवन करते हैं तब ये कार्य जीवों को अच्छे लगते
१. भ० श ८, उ० ७, प० ३७९-३८० ।
श्रमण-१३
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