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तीर्थकर-जीवन
१६१ धर्मोपदेश पूर्ण होने के बाद भगवान् ने कामदेव को संबोधन करते हए कहा-कामदेव ! गत रात्रि में किसी देव ने पिशाच, हाथी और सर्प के रूप बना कर तुझे ध्यान-भ्रष्ट करने के लिए विविध उपसर्ग किए, यह सत्य है ?
कामदेव-जी हाँ, यह बात सत्य है ।
निर्ग्रन्थ श्रमण-श्रमणियों को संबोधन करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-आर्यो ! घर में रहते हुए गृहस्थ श्रमणोपासक भी दिव्य, मानुषिक और तिर्यग्योनि सम्बन्धी उपसर्ग सहन कर सकते हैं तो द्वादशाङ्गगणिपिटकपाठी श्रमण निर्ग्रन्थों को तो अवश्य ही इस प्रकार के उपसर्ग सहन करने चाहिये ।
निर्ग्रन्थ श्रमण-श्रमणियों ने भगवान् का वचन विनयपूर्वक स्वीकार किया' ।
चम्पा से भगवान् ने दशार्णपुर के प्रयाण किया । दशार्ण का राजा दशार्णभद्र आपका भक्त था । आपके आगमन पर उसने बड़ा उत्सव किया और बड़े ही ठाटबाट के साथ वह वन्दन करने गया ।
दशार्णभद्र को अपनी ऋद्धि समृद्धि का बड़ा अभिमान था पर भगवान् के वन्दनार्थ आये हुए देवेन्द्र की ऋद्धि देख कर उसका अभिमान उतर गया । भगवान् के पास श्रमण-धर्म को स्वीकार कर वह श्रमण संघ में दाखिल हुआ ।
दशार्णपुर से भगवान् विदेह भूमि की तरफ प्रयाण कर वाणिज्यग्राम पधारे । पण्डित सोमिल की ज्ञानगोष्ठी
वाणिज्यग्राम में सोमिल नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था जो धनी मानी, अपने कुटुम्ब का मुखिया और पाँच सौ विद्यार्थियों का अध्यापक था । उस ने जब सुना कि तीर्थंकर भगवान् महावीर नगर के दूतिपलास चैत्य में
१. उपासकदशा, अध्ययन २, पृ० १९-३१ । श्रमण--११
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