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तीर्थंकर-जीवन
१४३ सिंह ने उत्तर दिया-श्राविके ! यह रहस्य मैं भगवान् महावीर के कहने से जानता हूँ । भगवान् ने ही इसके लिये मुझे यहाँ भेजा है ।
अनगार सिंह की बात से रेवती को बड़ी प्रसन्नता हुई । वह अपने रसोईघर में गई और बीजोरा-पाक लाकर मुनि के पात्र में रख दिया । इस शुभ दान और शुभ भाव से रेवती का मनुष्य-जन्म सफल हो गया । उसने शुभाध्यवसाय से देवगति का आयुष्य बाँधा ।
रेवती के घर से लाये हुए औषधमिश्र आहार के सेवन से भगवान् के पित्तज्वर और रक्तातीसार की पीड़ा बन्द हो गई। धीरे-धीरे उनका शरीर पहले की तरह तेजस्वी होकर चमकने लगा ।
भगवान् की रोग-निवृत्ति से सबको आनन्द हुआ । साधु साध्वियाँ और श्रावक श्राविकाएँ ही नहीं, स्वर्ग के देव तक भगवान् की नीरोगता से परम संतुष्ट हुए ।
भगवान् की आज्ञा के बिना स्वतंत्र होकर विचरता हुआ जमालि एक समय श्रावस्ती गया और तिन्दुकोद्यान में ठहरा । जमालि का मतभेद
उस समय जमालि पित्तज्वर से पीड़ित था । साधु उसके लिये पथारी बिछा रहे थे । जमालि ने पूछा-संथारा हो गया ? साधुओं ने कहा-हो गया । इस पर जमालि सोने के लिये उठा, पर संथारा अभी तक पूरा नहीं हुआ था । निर्बलता के कारण जमालि को खड़ा रहना कठिन हो गया था । उसने झुंझला कर कहा--'करेमाणे कडे (किया जाने लगा सो किया) ऐसा सिद्धान्त है, पर मैं देख रहा हूँ कि 'करेमाणे कडे' का कोई मतलब नहीं । कोई भी कार्य जब पूरा हो जाता है, तभी कार्य-साधक हो सकता है अतः उसी अवस्था में 'कडे' (किया) कहना चाहिये ।
जमालि का यह तर्क कई साधुओं ने ठीक समझा । तब कई स्थविरों ने इसका विरोध भी किया । उन्होंने कहा- भगवान् महावीर का 'करेमाणे
१. भ० श० १५, प० ६८५.८७ ।
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