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तीर्थंकर-जीवन विहार कर गये । वर्षावास मिथिला में व्यतीत किया । मिथिला में चातुर्मास्य समाप्त कर भगवान् ने वैशाली के निकट होकर श्रावस्ती की तरफ विहार किया । कोणिक के भाई वेहास (हल्ल), वेहल्ल जिनके निमित्त वैशाली में युद्ध हो रहा था किसी तरह भगवान् के पास पहुँचे और निर्ग्रन्थ श्रमण धर्म की दीक्षा लेकर उनके शिष्य हो गये ।
__भगवान् विचरते हुए श्रावस्ती पहुँचे और श्रावस्ती के ईशान कोणस्थित कोष्ठक चैत्य में ठहरे । गोशालक प्रकरण
उन दिनों मंखलिपुत्र गोशालक भी श्रावस्ती में था । महावीर से जुदा होने के बाद वह अधिकांश श्रावस्ती की तरफ ही घूमता था । तेजोलेश्या और निमित्तशास्त्र का अभ्यास गोशालक ने श्रावस्ती में ही किया था और अपने को 'तीर्थंकर' नाम से प्रकट करने की भावना भी उसे श्रावस्ती में जागृत हुई थी ।
श्रावस्ती में दो मनुष्य गोशालक के परम भक्त थे । एक 'हालाहला' कुम्हारिन और दूसरा 'अयंपुल' नामक गाथापति । गोशालक जब कभी श्रावस्ती में आता इसी हालाहला की भाण्डशाला में ठहरता ।
जब भगवान् महावीर के दीक्षा लिए करीब दो वर्ष होने आये थे तब गोशालक उनका स्वयंभू शिष्य बना था, और लगभग छ: वर्ष तक साथ रहने के बाद वह उनसे पृथक् हो गया था, जिस बात को भी करीब अठारह वर्ष पूरे हो चुके थे । गोशालक को श्रमण बने करीब चौबीस वर्ष हो चुके थे । २४वाँ वर्षा चातुर्मास्य उसने श्रावस्ती में हालाहला की भाण्डशाला में ही किया था । चातुर्मास्य समाप्त हो चुका था फिर भी गोशालक अभी श्रावस्ती में ही ठहरा हुआ था ।
जब तक गोशालक भगवान् महावीर के साथ रहा उसमें चपलता और कुतूहलवृत्ति अधिक रही और सब से अधिक रहा महावीर विषयक भक्तिभाव । कहीं कुछ भी प्रसंग आता और गोशालक अपने धर्माचार्य भगवान् महावीर के तपस्तेज की स्तुति करने लगता । यही नहीं इनके मुकाबले में
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