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तीर्थंकर-जीवन
१२३ २५. पचीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८८-४८७)
__इसी वर्ष में भगवान् के शिष्य वेहास, अभय आदि अनगारों ने राजगृह के पार्श्ववर्ती विपुल पर्वत पर अनशन पर देवपद प्राप्त किया । वर्षा चातुर्मास्य भगवान् ने राजगृह में किया । चातुर्मास्य समाप्त होते ही भगवान् ने चम्पा नगरी की ओर विहार कर दिया । मगधपति श्रेणिक के देहावसान के बाद कोणिक ने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया था, इस कारण मगध का राजकुटुम्ब चम्पा में ही रहता था । भगवान् भी उसी चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में ठहरे ।
राजा कोणिक ने बड़ी सजधज के साथ भगवान् का स्वागत किया । सम्पूर्ण नगर राजा का अनुगामी बनकर भगवान् को वन्दन नमस्कार करने के लिए गया । भगवान ने कोणिक तथा नागरिकगण के सामने निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश किया, जिससे अनेक भव्यात्माओं को जिन-धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न हुई और अनेक गृहस्थों ने मुनि-धर्म अंगीकार किया । मुनिधर्म अंगीकार करनेवालों में पद्म, महापद्म, भद्र, सुभद्र, पद्मभद्र, पद्मसेन, पद्मगुल्म, नलिनीगुल्म, आनन्द और नन्दन के नाम उल्लेखनीय हैं । ये सभी मगधपति श्रेणिक के पौत्र थे । इनके पिता क्रमशः काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृषेणकृष्ण और महासेनकृष्ण नाम के श्रेणिक के पुत्र थे जो कोणिक के षड्यंत्र में शामिल होकर श्रेणिक को पदच्युत करने में सहायक बने थे । इसके अतिरिक्त जिनपालित आदि अनेक समृद्ध नागरिकों ने भी भगवान् के पास निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म अंगीकार किया और पालितादि अनेक गृहस्थों ने श्राद्धधर्म को ग्रहण किया । २६. छब्बीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४८७-४८६)
चम्पा से श्रमण भगवान् विदेह भूमि में विचरे । बीच में काकन्दी में गाथापति क्षेमक, धुतिधर आदि को श्रमणधर्म में दीक्षित किया । इस साल का वर्षावास भगवान् ने मिथिला में किया । चातुर्मास्य के अन्त में भगवान् ने अंगदेश की तरफ विहार किया । इन दिनों विदेह की राजधानी वैशाली रणभूमि बनी हुई थी । एक ओर मगधपति कोणिक और उसके काल आदि
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