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________________ तीर्थंकर - जीवन ११७ गौतम —— महानुभव स्कन्दक ! मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर ऐसे ज्ञानी और तपस्वी हैं जो भूत-भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के सब भावों को जानते और देखते हैं । इन्हीं महापुरुष के कहने से मैं तुम्हारे दिल की गुप्त बात जान सका हूँ । स्कन्दक —— अच्छा, तब चलिये गौतम, तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन कर लूँ । गौतम - बहुत अच्छा, चलिये I इन्द्रभूति, गौतम और स्कन्दक दोनों भगवान् महावीर के पास पहुँचे । स्कन्दक की दृष्टि उनके तेजस्वी शरीर पर पड़ते ही उनके अलौकिक रूप, रंग और तेज से वह आश्चर्य चकित हो गया । महातपस्वी, महाज्ञानी और दिव्यतेजस्वी महावीर के दर्शनमात्र से स्कन्दक का हृदय हर्षावेग से भर गया । वे भगवान् के निकट आये, त्रिप्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन किया और हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गए । स्कन्दक के मनोभाव को प्रकट करते हुए महावीर ने कहा— स्कन्दक ! पिंगलक के 'लोक सादि है या अनन्त ?' इत्यादि प्रश्नों से तुम्हारे मन में संशय उत्पन्न हुआ है ? स्कन्दक -- जी हाँ, इस विषय में मेरा मन शंकित है और इसीलिए आपके चरणों में आया हूँ । महावीर - स्कन्दक ! द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-भेद से लोक चार प्रकार का है । द्रव्य स्वरूप से लोक सान्त (अन्तवाला) है, क्योंकि वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकायरूप केवल पञ्चद्रव्यमय है । क्षेत्रस्वरूप से लोक असंख्यात योजन कोटाकोटि लंबा, असंख्यात योजन कोटाकोटि चौड़ा और असंख्यात योजन कोटाकोटि विस्तृत है, फिर भी वह सान्त है । कालस्वरूप से लोक अनन्त, नित्य और शाश्वत है क्योंकि वह पहले था, अब है और आगे रहेगा । त्रिकालवर्ती होने से कालात्मक लोक अनन्त हैं । और भावस्वरूप से भी लोक अनन्त हैं, क्योंकि वह अनन्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान, गुरु Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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