SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर-जीवन ११५ विहार किया और गाँवों में धर्म-प्रचार करते हुए कचंगला नगरी के छत्रपलास चैत्य में पधारे । कचंगलानिवासी तथा आसपास के गाँवों के अनेक भाविक लोग भगवान् का आगमन सुन कर छत्रपलास में एकत्र हुए और वन्दननमस्कार पूर्वक धर्म-श्रवण कर अपने-अपने स्थान पर गये । स्कन्दक-प्रव्रज्या उस समय श्रावस्ती के समीप एक मठ में गर्दभालिशिष्य कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता था । वह वेद, वेदाङ्ग, पुराण आदि वैदिक साहित्य का पारंगत विद्वान् तथा तत्त्वान्वेषी और जिज्ञासु तपस्वी था । जिस समय भगवान् छत्रपलास में पधारे स्कन्दक कार्यवश श्रावस्ती आया हुआ था । वहाँ उसे 'पिंगलक' नामक कात्यायन गोत्रीय एक निर्ग्रन्थ श्रमण मिले । श्रमण पिंगलक ने स्कन्दक से पूछा 'मागध ! इस लोक का अन्त है या नहीं ? जीव का अन्त है या नहीं ? सिद्धि का अन्त है या नहीं ? सिद्धों का अन्त हैं या नहीं ? और हे मागध ! किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता और घटता है ?' पाँचों प्रश्न एक साथ पूछ कर निर्ग्रन्थ ने उत्तर की प्रतीक्षा की । स्कन्दक कात्यायन ने पाँचों प्रश्नों को अच्छी तरह सुना और उनपर खूब विचार भी किया परन्तु उनका उत्तर नहीं दे सका । उल्टा वह ज्योज्यों उनपर विचार करता जाता शंकाकुल हो विसेष उलझता जाता । पिंगलक ने दूसरी और तीसरी बार भी उन प्रश्नों की आवृत्ति की पर स्कन्दक की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला । ठीक इसी समय भगवान् महावीर के छत्रपलास चैत्य में पधारने के समाचार श्रावस्ती में पहुँचे । चौक, बाजार, मुहल्ले और गलियों में उनकी चर्चा होने लगी और क्षणभर में श्रावस्ती की आस्तिक प्रजा से छत्रपलास के मार्ग पर गये । नगरवासियों की यह चर्चा और प्रवृत्ति कात्यायन स्कन्दक ने देखी और वे भी सावधान हो गये । ज्ञानी महावीर के पास जाकर वन्दन-नमस्कार और धर्मचर्चा करने के विचार से वे श्रावस्ती से जल्दी लौट कर अपने आश्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy