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________________ ५६ श्रमण भगवान् महावीर अग्निभूति-~-यह सब पुरुष से अभिन्न है। महावीर-अभी तुमने कहा था कि 'पुरुष' अदृश्य है, इन्द्रियातीत है । इस 'पुरुषाभिन्न' नामरूपात्मक जगत् का इन्द्रियों से कैसे प्रत्यक्ष हो रहा है ? । अग्निभूति---इस नामरूपात्मक दृश्य जगत् की उत्पत्ति माया से होती है। माया तथा उसका कार्य नामरूप सत् नहीं है क्योंकि कालान्तर में उसका नाश हो जाता है। महावीर-तो क्या दृश्य जगत असत् है ? अग्निभूति-नहीं । जैसे यह सत् नहीं वैसे असत् भी नहीं, क्योंकि ज्ञानकाल में वह सत्रूप से प्रतिभासित होता है । महावीर-सत् भी नहीं और असत् भी नहीं । तब इसे क्या कहोगे ? अग्निभूति-सत्-असत् से विलक्षण इस माया को हम 'अनिर्वचनीय' कहते हैं । ___ महावीर-आखिर पुरुषातिरिक्त 'माया' नामक एक विलक्षण पदार्थ मानना ही पड़ा । तब कहाँ रहा तुम्हारा पुरुषाद्वैतवाद ? प्रिय अग्निभूति ! जरा सोचो, ये दृश्य पदार्थ पुरुष से अभिन्न कैसे हो सकते हैं ? यह दृश्य जगत् यदि 'पुरुष' ही हो तो 'पुरुष' की ही तरह वह भी इन्द्रियातीत होना चाहिए । पर तुम प्रत्यक्ष देखते हो कि यह इन्द्रियगोचर है। प्रत्यक्षदर्शन को तुम भ्रान्ति नहीं कह सकते । अग्निभूति-इसे भ्रान्ति मानने में क्या आपत्ति है ? महावीर-भ्रान्तिज्ञान उत्तरकाल में भ्रान्त सिद्ध होता है । जिसे तुम भ्रान्ति कहते हो वह कभी भ्रान्तिरूप सिद्ध नहीं होता, अतः यह निर्बाध ज्ञान है, भ्रान्ति नहीं । अग्निभूति--यह माया पुरुष की ही शक्ति है और पुरुष विवर्त में नाम-रूपात्मक जगत बन कर भासमान होता है । वस्तुतः माया पुरुष से भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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