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________________ प्रजा ने सदा के लिए पाली का त्याग कर दिया तथा कहीं और जाकर बसना शुरु किया। पाली से तितर बितर हुई इस प्रजा ने पाली का पानी कभी न पीने की प्रतिज्ञा कर ली। आज भी इनके वंशज पाली जाते हैं तो वहाँ का पानी भी नहीं पीते हैं। इनके वंशज आज भी पालीवाल या पल्लीवाल के नाम से प्रसिद्ध है । इस पल्लीवाल वंश की ‘वरहूदिया' वगैरह अनेक शाखाएँ हैं। पल्लीवाल जाति - पल्लीवों के लिए मांडालिक ठक्कर, साहू, संघपति इत्यादि विशेषणों का उपयोग किया जाता है। कुल मिलाकर पल्लीवाल धनवान, सुखी एवं मान-सम्मान वाले राज्य मान्यता प्राप्त श्वेतांबर जैन थे । पल्लीवाल जैनों ने अनेकों धार्मिक कार्य किये हैं। · • • पाली के प्रद्योतन गच्छ के लक्ष्मण (लखमणा) के पुत्र देशल ने सं. 1151 को आषाढ़ शुक्ला अष्टमी बृहस्पतिवार को पाली में पूर्णभद्रमहावीर के जिनचैत्य की देरी में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की। (जैन प्र. पु. सं. प्र. 108) महादानी सेठ लाखण पल्लीवाल ने सं. 1299 की कार्तिकी मास में राजगच्छ के आचार्य सिद्धसेन के पट्टधर (जो एक उतकृष्ट चारित्रधारी आ. रत्नसेन के नाम से विख्यात थे) के उपदेश से 'समराईच्चकहा' लिखवाकर उनके पास व्याख्यान करवाया। (जैन पु. प्र. सं. प्र. 35 ) वरहूडिया नामक पल्लीवाल के वंशजों ने शत्रुंजय, गिरनार, आबू जैसे बड़े-बड़े तीर्थ स्थानों में मंदिर, देरियें, जिन प्रतिमाएँ, परिकर एवं प्रतिष्ठाएँ करवायी थीं। (प्र. क. 38, वरहूडीया वंश प्र. 44 ) उनके पौत्र जिनचंद्र ने सं. 1292 मैं, सं. 1295 में बीजापुर में तपागच्छ के आचार्यों को विनती कर चातुर्मास करवाया। अनेक जैन शास्त्रों की रचना करवायी। (प्र. 38 प्र. 44, 45 ) वरहूडिया जिनचंद्र के सुपुत्र वीरधवल एवं भीमदेव, जो आगे जाकर विद्यानंदसूरि (सं. 1302 से 1327, प्र. 45 ) एवं दादा धर्मघोषसूरि (सं. 1302 से 1357, प्र. 45) के रुप में विख्यात हुए, जो महाज्ञानी, त्यागी एवं तपस्वी थे। - श्री पल्लीवाल जैन इतिहास 28
SR No.007799
Book TitlePalliwal Jain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi, Bhushan Shah
PublisherMission Jainattva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages42
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size15 MB
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