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________________ उनको राज्य को कोई कर नहीं देना पड़ता था। इसके अतिरिक्त पल्लीवाल वैश्यों के उपर भी उनके निर्वाह का कुछ भार था ही। राज्य ने ब्राह्मणों से कर लेने पर बल दिया और वैश्यों ने उसकी पूर्ति करना अस्वीकार किया, बल्कि स्वयं की जिम्मेदारी को उलटा घटाना चाहा और इस पर 'सहजरुष्ट' होने वाले स्वभाव के ब्राह्मण अपने सदियों के निवास पाली का एक दम त्याग करके चल पड़े। यह घटना वि. 17 वीं शताब्दि में हई प्रतीत होती है। पल्लीवाल ब्राह्मण कुलों में पाली का त्याग करके निकल जाने की कथा उनके बच्चे-बच्चे की जिह्वा पर है। इसी प्रसंग के घटना काल में पल्लीवाल वैश्यों को पाली का त्याग करके चले जाने के लिये विवश होना पड़ा हो और वह यों चले गए हो। पल्लीवाल ब्राह्मण कृषक कुलों ने वैश्य कुलों से सहाय मांगी अथवा वृत्ति में वृद्धि करने को कहा और वैश्य कुलों ने दोनों प्रस्ताव अस्वीकार किया और इससे यह तनाव बढ़ चला हो। इससे भी अधिक वास्तविक कारण यह प्रतीत होता है कि वैश्य कुलों ने अपने उपर चले जाते ब्राह्मण कुलों के आर्थिक भार को कम करना चाहा हो और ब्राह्मण कुलों ने वह स्वीकार न किया हो। ठीक इसी समस्या के निकट में राज्य ने ब्राह्मण कुलों से कृषि योग्य भूमि छीनना प्रारंभ किया हो और वैश्य कुल यह सोचकर कि ब्राह्मण कुलों को उलटा अब और अधिक देना पड़ेगा, न्यून करना दूर रहा। उक्त घटना काल के कुछ ही पूर्व अथवा उसी समय अधिक अथवा संपूर्ण समाज के साथ पाली का त्याग करके निकल चले हों। इस आशय की एक कहानी पल्लीवाल वैश्य कुलों में प्रचलित भी है और वह परिणाम से सत्य भी प्रतीत होती है। उस समय पाली जैन पल्लीवाल वैश्यों में धनपति साह का प्रमुख होना राय राव की पोथियों में वर्णित किया गया है। यह कहाँ तक प्रमाणिक है इस पर विचार करते हैं तो वह यों सिद्ध होता है कि राय परशादीलाल और मोतीलाल के उत्तराधिकारियों के पास में पल्लीवाल जाति की विवरण पोथियाँ है। उनकी पोथी में श्रेष्ठि तुलाराम ने श्री महावीरजी क्षेत्र के लिये पल्लीवाल जातीय 45 पैतालीस गोत्रों को निमंत्रित कर के यात्रा संघ निकाला था, यह वर्णन है। श्री महावीरजी क्षेत्र की स्थापना विक्रमीय उन्नीसवीं शताब्दि के. सं. 1826 के आस पास दीवान जोधराजजी ने की थी। अतः उक्त राय की पोथी उन्नीसवीं शताब्दि की अथवा पश्चात् लिखी गई है। परंतु उन्नीसवीं शताब्दि में लिखा जाने वाला विवरण निकट की और निकटतम की शताब्दियों का चाहे वह जनश्रुतियों, दंत कथाओं पर ही क्यों न लिखा गया हो नाम, स्थान एवं कार्य कारणों के उल्लेख में तो विश्वसनीय हो सकती है। इस दृष्टि से उक्त राय की उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दि में लिखी हुई : श्री पल्लीवाल जैन इतिहास -17
SR No.007799
Book TitlePalliwal Jain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi, Bhushan Shah
PublisherMission Jainattva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages42
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size15 MB
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