SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अज्ञातकर्तृकविरचितम् ॥आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम्॥ नमिऊण जिणवरिंदे, अणंतसुहनाणदंसणसमिद्धे। अप्पोवएसमालं, वुच्छं सुगुरूवएसेणं॥१॥ (अर्थ) (मैं) अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन से समृद्ध जिनवरेन्द्रों (श्रेष्ठों) को नमस्कार करके सुगुरु के उपदेश से आत्मोपदेशमाला कहता हूँ। एगे बोहिंति परं, अवरे अप्पं तहा परे उभयं। अम्हारिसा जडा पुण, असमत्था उभयबोहे वि॥२॥ (अर्थ) एक जो दूसरों को बोध कराते हैं, इससे भिन्न खुद को बोध कराते हैं और इनसे भिन्न दोनों को बोध कराते हैं। हमारे जैसे जड लोग तो दोनों को बोध कराने में असमर्थ हैं। अहवा जिणिंदधम्मो, भणिज्जमाणो जडेण वि वरु च्चिय। राएण वराएण वि, धरियं अमलं वि य सुवन्न॥३॥ (अर्थ) जड के द्वारा भी कहा गया जिनेन्द्र धर्म श्रेष्ठ ही होता है, जैसे राजा तथा गरीब के द्वारा धारण किया हुआ सोना शुद्ध ही होता है। पडिबोहिऊण अप्पं, गहियवया नाणिणो कहियधम्मा। सिद्धा उसभाइजिणा, जयंति तियलोयनयणसमा॥४॥ (अर्थ) खुद को प्रतिबोधित करके व्रतों का ग्रहण किये हुए ज्ञानी, धर्म को कहनेवाले सिद्ध ऐसे तीनों लोकों के नयन समान ऋषभादि जिनों की जय हो। सुयनाणरयणखाणी, सक्का अप्पं परं च बोहेउं। सिरिपुंडरीयपमुहा, जयंति गणहारिणो सव्वे॥५॥ (अर्थ) श्रुतज्ञान रूपी रत्न की खान, अपने को और दूसरे को बोध कराने के लिए समर्थ, श्रीपुण्डरीक जिनके प्रमुख है ऐसे सभी गणधारों की जय हो। नमिमो सोहग्गनिहि, बालं पि अबालमप्पकयबोह। दुहतरुवइरं वइरं, वइरकरं वइरहरणं पि॥६॥ (अर्थ) बालक होते हुए भी अबाल को आत्मा का बोध करनेवाले सौभाग्यनिधि को नमस्कार करते हैं। रे जीव! स(सु)णसु पुव्विं, धम्मवएसुं तओ मुणसु हिए। काएण कुणसु पच्छा, जह सुक्खं अक्खयं लहसि॥७॥ (अर्थ) हे जीव! पहले धर्मोपदेश को सुन, फिर हृदय में जान। बाद में शरीर से कर जिसप्रकार(जिससे तुझे) अक्षय सुख की प्राप्त होगी।
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy