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नयामृतम्-२
अयं हि सदपि द्रव्यं न ज्ञापयति। क्षणध्वंसिनः पर्यायान् तु प्रधानतया दर्शयति। यथासुखं सम्प्रत्यस्तीति अनेनात्मानम् अवगणय्य सुखाख्यं पर्यायमात्रं प्रदर्श्यते इति ऋजुसूत्रनयः। ए बीजी ढालनी पहिली, बीजी, त्रीजी, गाथानो अर्थः॥१॥२॥३॥ [मूल] भाषावर्गणा रूप जे पुद्गल, ते शब्दनय कहीयइं।
तेणिं सकल पदारथ तेहनी, वाच्य वाचकता ग्रहीइं रे॥ भवि०॥२४॥ (२.४) शब्दनय पर्याय अनेकइ, एक ज अर्थ प्रकाशें।
जिम घट कलश कुंभादिक शब्दइं, केवल घट मनि भासइ रे॥ भवि०॥२५॥ (२.५) [बाला.] हवें शब्दनय कहे छ। शब्दनयो यथा बभूव, भवति, भविष्यति सुमेरुरिति। अत्रातीतानागतवर्तमानकालत्रयभेदात् कनकाचलस्य पर्यायत्वेन भेदं शब्दनयः प्रतिपद्यते। द्रव्यरूपतया त्वभेदमेव। समभिरूढस्तु पर्यायभेदेऽर्थस्यापि भेदं मन्यते यथा इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छक्र इति। समभिरूढस्तु इन्दनादिक्रियायां स[त्यायामस]त्यायां च इन्द्रादिव्यपदेशं लभते। एवम्भूतस्तु इन्दनादिक्रियां कुर्वन्तमेव इन्द्रादिव्यपदेशमभ्युपगच्छति। उदा(ह)रणं यथा इन्दनक्रियामनुभवन्निन्द्रः शकनक्रियापरिणतः शक्र इति। ___ एते शब्दादि त्रयो नयाः शब्दस्य प्राधान्यं मन्यन्ते, न त्वर्थस्य अत एते शब्दनयाः। यत्र शब्दव्यवस्था तत्रैवार्थवाच्य इति। ____ भाषावर्गणा रूप पुद्गलनो परिणाम ते शब्द कहीइं। तेणिं करी पदार्थनइं वाच्यवाचकभाव संयुक्त कीजें छइं। अर्थनइ अप्रधान मानें शब्दनै प्रधान मानें ए धर्म माटे शब्दनई विषइं शब्दनयनो उपचार कीजें। उपचार ते आरोप कहीइं। अन्यत्र स्थितस्य वस्तुनः अन्यत्रारोप उपचार इति वचनात्। जिम कोइ एक पुरुष विषई क्रूरगुण देखीनें सिंहनो उपचार कीजें छई। जे पुरुषसिंह छई तिम अत्र पिण शब्दनें विर्षे अर्थनी अप्रधानता अमें शब्दनी प्रधानता। तथा ऋजुसूत्रथी ए नय शुद्ध छे। ते देखीने शब्दनै विषइं शब्दनय कहीइं। ए शब्दनय पिण वर्तमान पर्यायनइं कहें, अतीत अनागत पर्यायनें न कहइं छई। ऋजुसूत्र लिंगवचननें भेद न कहइं, शब्दनय लिंगादि भेद कहइ छ। जिम तट शब्द पुल्लिंगई, तटी स्त्रीलिंगई, तटं नपुंसकलिंगई ए अर्थ ते एक ज बोलई छइं, पिण उपचार करता लिंगभेद साक्षात् भासई छई। इम वचनभेद पिण छइं। एको नरः, द्वौ नरौ, बहवो नराः तथा देवः, देवता, दैवतं ए त्रिणि शब्दनी प्रवृत्ति भिन्न कही छई। अनइं ऋजुसूत्र तो एक प्रवृत्ति कहइं ते माटइं ए नय शुद्ध जाणवो इति शब्दनयः। ए चोथी पांचमी गाथानो अर्थः॥४॥५॥ मूल] समभिरूढ नय पर्यवभेद, अर्थभेद पिण बोलें।
कुंभादिक जे घट पर्याया, ते घट पट सम तोलई रे॥भवि०॥२६॥ (२.६) जो पर्यव भेदें नवि होवई, अर्थ भेद तो कहीइ।
तिम घट पट पर्यायनें सघलइं, तिहां पिण भेद न लहीइ रे॥भवि०॥२७॥ (२.७) [बाला.] हवें समभिरूढ नय कहें छइ। जेतलाइक नामना पर्याय शब्द छे, ते सर्व भिन्न भिन्न अभिधेय कहें छई। ए समभिरूढ नय कहीइं। ते किम? जिम इंद्रना पर्याय नाम घणा छइं शक्र, पुरंदर, शचीपति इत्यादिक नाममाला मध्ये ए सर्व इंद्रनां नाम छ। पिण पर्याय जुजुआ ते कहै छेइ— यथा शक्नोतीति शक्रः शक्तिवंत ते शक्र