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________________ गुजराती पद्यकृति ६३ (२.२) पंडित न्यायसागर रचित सप्तनयविचारगर्भित वीरजिनस्तवन (बालावबोधसहित) श्रीगुरुभ्यो नमः। [मूल| सिद्धारथ त्रिशलातणो नंदन गुणमणिखाणि। नयवचने करी वीनवू, आगमथी मति आणि॥१॥ मूल नयागममां कह्या, नैगम प्रमुख जे सात। ते विवरी कहुं लेशथी, शुद्ध यथोत्तर थात॥२॥ प्रकृत वस्तुना अंशनें ग्रहइं तदितरथी उदास। अभिप्राय प्रतिपत्तुनो, ते नय आगमवास॥३॥ [बाला] प्रथम नयनें लक्षण कहीइं छइ। नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशः तदितरांशौदासीन्यतः सप्रतिपत्तरभिप्रायविशेषो नयः। अथवा अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तन एकांशव्यवसायात्मकं प्रकाशकं ज्ञानं नयः। अनंत धर्मात्मक वस्तुनुं जे एकांश तेहनुं प्रकाशक एहवू जे ज्ञान ते नय कहीइं। श्रीवीतराग मतनें विर्षे सकल वस्तु अनंतधर्मात्मक वर्णवी छे, मयूरांडवत्। जिम मोरना इंडामाहिं अनेक धर्म छई तो इंडाथी मोर नीपजई तिवारें नव नव रंग विचित्रता प्रगटई छई। अछतुं कांइं उपजतुं नथी, ऊपजें तेहि ज सत्य हुइ आकाशकुसुमवत्। जिम आकाश कुसुमनी नास्ति छइं तो ऊपजतुं पिण नथी इम मृत्पिडने विषइं पिण घट-घटी-शराव-उदंचनादिकनी सत्ता छे तो ते माहिथी तेहवा तेहवा पर्याय ऊपजई छई। अत्र कोइक पूछस्यें—जो तुम्हे अनंत धर्म वस्तुनें विषई कहो छो तो एकइं धर्मे करी वस्तुनें कांइ बोलावो छो? तो तेहनइं इम कहीइं—अम्हे अनंत धर्मनी सत्ता मानां छां, पिण परिणाम ते एके कालई संख्याता असंख्यातानो छई। तथा जिणे कालई जे परिणाम छइं तेणइं कालइं अपर परिणाम न हुई। यद् द्रव्यं यदा येन रूपेण परिणमति तदा तेनैव रूपेण न तु रूपान्तरेणेति वचनात्। हवें नयनें प्रमाण कहीइं किं वा अप्रमाण कहीइं? प्रमाण ते यथार्थ- कहिवू, अप्रमाण ते अयथार्थ- कहि। यथार्थः प्रमाणमित्यच्यते। अयं वार्थः अप्रमाणमिति नयः प्रमाणस्यैकांश: इम कोइ पछइ तेहनइ इम कहीइ नाप्रमाणं प्रमाणं वा प्रमाणांशस्तथैव हि। नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि॥ नय ते प्रमाणनो अंश छइं। जे प्रमाण नही अप्रमाण नही तेहनइं प्रमाणांश कहीइ। कथंचित् प्रमाणनें कहें छइं ते माटइ समुद्रजलपसलीनी परि। जिम समुद्रमाहिथी जलनी पसली भरी छई तेतला जलनइं समुद्र न कहीइं तेहनइं ज जो समुद्र कहीइं तो पूठिला जलनइं समुद्रपणुं टलस्यें समुद्र नाम एक छ। तिम असमुद्र पिण न कहीइं। जो तेतला जलनइं समुद्रपणुं नथी तो पूठिला जलने पिण समुद्रपणुं टलिस्य। ते माटें पसली समुद्र जलने समुद्रांश कहीइं। तिम नयनें पिण प्रमाणांश कही। तथा समस्तांश जेहनइं विषइं रह्या छई तेहनइं प्रमाण कहीइं। समस्तांशस्थानं प्रमाणमिति वचनात्।
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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