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गुजराती पद्यकृति
[नयानां परस्परविरोधपरिहारः]
(ढाल-१४, राग-धन्याश्री, कहणी करणी तो विण साचो ए देशी) [म.] इंम विरोध परसपरिं देखी, सेवि नयनिं निज रूपिं रे।
जे संदेह धरइ मनि बूडई, ते मिथ्या मत कूपिं रे॥१४.१॥(१७०) श्री जिनवाणी अमृत समाणी, पिजइ लीजइं स्वाद रे। जिनमति जाणी थिरता आणी, त्यजीई आग्रहवाद रे॥१४.२॥(१७१) आंचली॥ संदेहि होइं समय आसायण, इति महाभाष्यिं भाख्यु रे।
तेह कारण समुदित अभ्यासो, जो वंछो श्रुत राख्यु रें॥ श्रीजिन०॥१४.३॥(१७२) [टबार्थ] एवं सविसययससच्चे पर विसयपरंमुहे णये नाउं। नेएसु न संमुज्जइ न य समयासायणं
कुणइ॥१४.१,२,३॥ (१७०, १७१, १७२) (विशे. २२७२) श्रुत परिशीलन ए विण न होइं, ए श्रुत जलनिधि पोत जी। एह थकी घटि परगटि होइं, निरमल ज्ञान उद्योत जी॥ श्रीजिन०॥१४.४॥(१७३) भिन्न भिन्न विषयिक नयलयथी, होवई मुनि श्रुतज्ञानी जी। बृहतकल्पभाष्ये ते भाख्यो, केवली सम शुभध्यानी जी॥ श्रीजिन०॥१४.५॥(१७४) एह अनोपम चिंतामणि सम, शास्त्र पिटकथी लेई जी। प्राकृत भाषा दोरई गुंथ्यो, भविजन कंठि ठवेई जी॥ श्रीजिन०॥१४.६॥(१७५) सम्यग्दृष्टीने रुचि वाधइं, एह विचार सुणतां जी। जे नही छल छलीया गुणभरीया, तस अनुमतिए भणतां जी॥ श्रीजिन०॥१४.७॥(१७६) नयरहस्य जो लघु निंदीजइं, तो होइं अरथनी हाणी जी। योगदृष्टिसमुच्चयमांहिं, एहवी रीति वखाणीजी॥ श्रीजिन०॥१४.८॥(१७७) श्रोता मति परिमाणि कहेंवो, नयविशारद सूरिंजी।। आवश्यकनियुक्तिं भाख्यु, नहीं बुधजनमन दूरि जी॥ श्रीजिन०॥१४.९॥(१७८) आसज्ज उ सोआरं, नये नयविसारओ बूया॥१४.९॥(१७८) एहथी मिथ्यामति सवि भाजइं, होवई वस्तु प्रकाश जी। आरतिध्यान निवारक ऊलसे, चिदानंद विलास जी॥ श्रीजिन०॥१४.१०॥(१७९) एह विचित्र नयवाद विचारी, कीजई उपशमभाव जी।
सूत्रिं पणि एहनुं फल दाख्युं, राग द्वेष अभावजी॥ श्रीजिन०॥१४.११॥(१८०) [टबार्थ यत उपदेशः
सव्वेसिं पिणयाणं, बहुविहवत्तव्वयं णिसामित्ता। तं सव्वणयविसुद्धं, जं चरणगुणट्ठिओ साहू॥ त्ति
[टबार्थ