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नयामतम-२
[मु.]
परयाय संकर दोष रे, अन्यथा होइं इति रोष रे।
कोष रे, वस्तु निज निज धरमनो रे॥११.९॥(१२७) [टबार्थ पर्याय ते वस्तुना धर्म तेहनो संकर जे एकत्व एहवो दोष थाई। जो कर्तानी क्रियानि घटनें विषं संबद्ध
मानीइं। तो एह रोष समभिरूढ वादी करई छई। ते माटें कोष कहेंतां सघली वस्तु आप आपणा धर्मनी आधार छ।।११.९॥ (१२७) इति करत किरिया करमि रे, संक्रमई नहीं त्यजि भरम रे।
मरम रे, एह घट कुंभादिकिं रे॥११.१०॥(१२८) [टबार्थ हवें फलितार्थ कहई छई। एतला माटें कर्तानी क्रिया कर्मिं संक्रमें नहीं। ए भर्म छांडें जांणो। ए मर्म
घटकुंभादिक पर्याय सबदें पणि मानवो। तिहां भिन्न भिन्न प्रवृत्तिनिमित्त रूप धर्मनो संकर न थाइं
इति भावः॥११.१०॥ (१२८) [मु.] एह युगतिनो विस्तार रे, विशेषावश्यकिं सार रे।
प्यार रे, एहनि पणि भावस्युं रे॥११.११॥(१२९)। [टबार्थ गाथा
घटकार विवक्खाए कत्तुरणत्थंतरं जओ किरिया। न तदत्थंतरभूए समवाओ नाम उसासे॥ कुंभंमि वत्थुपज्जयसंकराइप्पसंगदोसाओ। जो जेण जं च कुरुए तेणाभिन्नं तयं सव्वं॥ एह नय पणि भावनिक्षेपाने मानें॥११.११॥(१२९)
॥इति समभिरूढः षष्ठः॥
॥अथैवंभूत नयः॥
(ढाल-१२, राग-गोडी, इंणि परि राजि करंत रे ए देशी) [म.] अध्यवसाय विशेष रे, व्यंजन अरथनो।
जेह विशेष गवेषतो ए॥१२.१॥(१३०) [टबार्थ] शब्द अनि अर्थना विशेषनी अपेक्षा करतो एहवो जे अध्यवसाय विशेष॥१२.१॥(१३०) [मु.] एवंभूत नय तेह रे, सूत्रि दाखीओ।
किरिया परिणत मानतो ए॥१२.२॥(१३१) [टबार्थ| ते एवंभूतनय जाणवो। अनुयोगद्वार सूत्रनइं विर्षे कह्यो। जे शब्दनें विर्षे जे क्रिया तेणिं परिणम्यो ते
अर्थनिं मानइं एहवो छइं॥१२.२॥(१३१) [मु.] दीपन किरिया शून्य रे, जिम दीपक नहीं।
दीप शबद वाचक नही ए॥१२.३॥(१३२)