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गुजराती पद्यकृति
वृक्षादिकनी प्रतीतिका रे, होइं वनस्पती जन्य।
जेणिं जेह पतीजीई रे, तेहथी ते नही अन्य रे॥ भवि०॥७.३॥(८०) [टबार्थ आम निंब प्रमुखनी बुद्धि थाइं छे ते वनस्पती सामान्यथी ज। जेहथी जेहनी बुद्धि उपजइं तेहथी तेह
भिन्न किम कहीइं?॥७.३॥(८०) अंगुल्यादिक हस्तथी रे, जिम कांई भिन्न न होय।
वनस्पति सामान्यथी रे, तिम वृक्षादिक जोय रे॥ भवि०॥७.४॥(८१) [टबार्थ] एह उपरि युक्ति कहें छई। अंगुली प्रमुख ते हस्त थकी जिम कांई भिन्न नथी तिम वनसपतीरूप जे
सामान्य तेह थकी अंब, लिं(नी)ब, कदंबादिक वृक्ष भिन्न नथी।।७.४॥(८१) [मु.] इंम दृष्टांतिं भावीइं रे, सत शबदइं सवि भान।
तह द्रव्यत्वादिक रूपिं रे, सवि द्रव्यादिक ज्ञान रे॥ भवि०॥७.५॥(८२) [टबार्थ] ए रीतिं पूर्वोक्त दृष्टांतिं करी दार्टीतिकें भावना करीइं ते देखाडे छई। सत् ए शबदि द्रव्य-गुणादिक
सर्वनुं भान थाई छई तिम द्रव्यत्व, गुणत्व प्रमुख रूपिं समस्त द्रव्य-गुणादिक भासें छई।।७.५॥(८२) [म.] ए पणि निक्षेपा चउरे, मानइं प्रत्येकि एक।
कोइ कहइं ए थापना रे, वंछइं नहीं सुविवेक रे॥ भवि०॥७.६॥(८३) [टबार्थए संग्रहनय पणि च्यारे निक्षेपा माने छई। पणि एकेकें निक्षेपें अनेक वस्तुनिं एकत्व रूपिं माने। ईहां
मतांतर कहें छइं। कोई कहें संग्रहनय थापना निक्षेपानि मानें नहीं। जे माटें एहनो विवेक विशेष छई। घटपटादि अनेक नामनिं नाम रूपिं एक ज मानइं। इंम शेष निक्षेपें पणि भावना करवी इति
भावः॥७.६॥(८३) [म.] नाम संकेत विशेष छइं रे, ते थापनाई संत।
ते माटें नाम निक्षेपइं रे, थापना संग्रह हुँत रे॥ भवि०॥७.७॥८८४) [टबार्थ] ते देखाडे छई। नाम निक्षेपो ते आपआपणी वस्तुई संकेत विशेष छई। ते संकेत थापनाइं पणि छई। ते
कारणिं नाम निक्षेपानि वि संकेत रूप थापनानो पणि संग्रह थाइं छइं।।७.७॥(८४) म.]
तेह मषा पित्रादिकई रे, विहित संकेत विशेष।
शबद पुद्गल रूप नाम छइं रे, थापना आकृति विशेष रे॥ भवि०॥७.८॥(८५) [टबार्थ हवें तेह मत दूधे छई। तेह कहें छे ते जुर्छ। जे माटें पिता प्रमुखई कीधो जे संकेत विशेष देवदत्तादिक
एहवो जे भाषावर्गणाना पुद्गल रूप तेहनिं नाम कहीइं अनि थापना तो आकार विशेष छे
औदारिकादिकवर्गणा रूप॥७.८॥(८५) ते माटंइ नामादिकिं रे, बहु संख्याई जेह। निज निज जाति एकता रे, ग्रहीइं संग्रह तेह रे॥ भवि०॥७.९॥(८६)
म.]