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________________ गुजराती गद्यकृति १०७ नय करी?(४) ए प्रश्न साते नये जाणवौ। जीव कर्मनो अकर्ता किसी नय करी?(५), जीवकर्मनो अभोक्ता किसी नय करी?(६), जीव स्वरूपनो अकर्ता किसी नय करी?(७) जीव स्वरूपनो अभोगता किसी नय करी?(८) प्रश्न मध्ये पिण सातनयविचारणा मारी मतसारु ग्रंथांने अनुसारे ए रीते लागे। प्रथम प्रश्न—जीवकर्मनो कर्ता किसी नय करी? ते शुद्ध निश्चै जीव रागद्वेषविभावपरणांमनो कारण पाय ऋजुनयनें मते। विवहारनी क्रियायें पुन्य-पापनो आश्रव कर बंधतत्त्व थया ने संग्रहनय सतारया ए रीते करता। दुजो प्रश्न—करमनो भोगता ते पुन्य पापना बंधनो उदयकाल आया कर्म निर्जरं तरै पेला वेदना पछे निर्जरासु वेदवो तेही ज भोगववो ते अष्टकर्मकारण पाय जीवना सुखदुखरूप विभावपरणांम थाय ते असुद्ध शब्द नय करी जीव भोक्ता।(२) जीव स्वरूपनौ कर्ता किसी नय अर स्वरूपनो भोक्ता किसी नय? ते इहां कर्म संबंधनो भेद नही एकला जीकामांही ज स्वरूपनो करता भोगतापणो छ। ते जीवद्रव्यमध्ये अनंतगुण कह्या। ते गुण आप आपणो कारजनी प्रवर्तना करै छै, नवा नवा कारण कारज समै समै उपजे छे। ते ज्ञानगुण कारण, जांणपणो ते कार्य, ज्ञानगुणप्रवर्ती ते किरिया(१)। सुखगुण कारण, सुख ते कारज, सुखगुणप्रवर्तन ते क्रिया। (२) इहां सुखगुणप्रवर्तना ते तो करतापणो अर सुख ते भोक्तापणो ए रीतें स्वरूपनो करतापणो भोगतापणो। अर इहां नय पुछोसु सिद्धमें नय न कही। अर अवस्था सर्वथासिद्धमै छ। फेर एवंभूतनय लगावै तो नजीकपणाथी लागै एवं ४ प्रश्ननो जबाब। बाकी च्यार प्रसननो जबाब। जीवकर्मनो अकर्ता किसी नय? और कर्मनो अभोक्ता किसी नय? ते जीव तेरमें गुणठाणै ईरियावहीकी क्रियायें सातावेदनी करमनो करता हुँतो ते जोगनिरोध कीधा पछी अक्रिय हुवो ते अकर्ता ते एवंभूतनयनें मते अकर्ता हुवो। पिण भोगतापणो चवदमै गुणठांणै छै ते च्यार कर्म निजरै छै ते वेदना विना निर्जरा हुवै जेनही अर अभोगता करमनौ समस्त करम रहत हुवाई ज हुवै ते सिद्धावस्थायेही जछै। इहां पिण सिद्धमैं नय नही कही। फेर एवंभूत आपारी कल्पनायै लगावें तो लागै ए कर्मनो अकर्ता-अभोक्तापणो कह्यौ। ____ जीव स्वरूपनौ अकर्ता किसी नय करी? अर स्वरूपनो अभोक्ता किसी नय करी? ते ए रीते शुद्धनिश्चं नय शुद्ध संग्रह नय करी वस्तुनै नित मांनै नित ते सत, सत ते अनादि परिणामी भावें जीव देवता, नारकी, मनुष्य, तिर्यंचपणै न हवौ कटस्थ अवस्थायै अर्थक्रियानौ कर्ता नही। कर्ता नहीं तिहां भोक्ता पिण नही। कर्ता विना भोगता हवै जन इहां नय शुद्धनिश्चें परणांमिक भाव स्वभाविक भाव छै तेमैं सिद्ध-संसारिनो भेद नही। सिद्ध-संसारीरो भेद तो उदय कषायादिक भावकरम जनन छै। तेमैं छ नय शुद्ध संग्रह फेर लागे छै। ए रीते मारी समझ माफक लगाया हैं। इणमाहि कोई अयथारथ लागो हुवै तौ पुछ लेजो। फेर आप कांई सवाय वात कर लगावो तो लगाय दीखावतो ज्यु मारै सवाय ज्ञान खुले। मारे तो ज्ञान पुछीयां-वांचियासुई ज वधै छै। नयनो ज्ञान गहन छै समझमें आई तिम लिखीयो छै। ॥इति सातनयविचार संपूर्ण।।' १. प्रतिलेखकप्रशस्ति—सं.१९०६रा चैत्र सुद १५ दिने। ल दोलतविजय आत्मार्थे हेते।
SR No.007790
Book TitleNayamrutam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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