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गुजराती गद्यकृति
(३.१) श्रीमतिचन्द्रजीरचित ॥नयस्वरूप॥
अथ नयस्वरूप लिख्यते। स्यात्कारमुद्रिता भावा नित्यानित्यस्वभावकाः। प्रोक्ता येन प्रबोधाय वन्दे तं वृषभं जिनम्॥१॥ अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशे व्यवसायात्मकं ज्ञानं नयः।
अनन्तधर्मात्मक वस्तुनुं जे एकांश तेहनुं प्रकासक एहवू जे ज्ञानं ते नय कहीयै। श्रीवीतरागमतने विषे सकल वस्तु अनन्तधर्मात्मक वर्णवी छै मयूराण्डवत्। मोरना इंडामाहिं अनेक धर्म छै तो इंडाथी मोर नीपजै छै तिवारै नव नव रंग विचित्रता प्रगटे छै अछतों काई उपजतुं नथी। उपजे तेहि ज जे सत्य हुइं आकाशकुसुमवत्। जो आकाशकुसुमनी नास्ति छै तो ते उपजतुं पिण नथी इम मृत्पिडने विषे पिण घट-घटी-शराव-उदिंचनादिकनी सत्ता छै तो तेमाहिथी तेहवा तेहवा पर्याय ऊपजै छ। ____ अत्र कोइक पूछि स्यै जो तुम्हे अनन्तधर्म वस्तुनें विषै कहो छो तो एकइं धर्मे करी वस्तुनें कांई बोलावो छो? तेहनें इम कहीयै—अम्हे अनन्तधर्मनी सत्ता माना छां पिण परिणाम ते एके कालें संख्याता असंख्यातानुं छइं। तथा जेणे काले जे परिणाम छै तेणें कालें अपर परिणाम न हुवें। यद् द्रव्य यदा [ये/नरूपेण परिणमति, न तु रूपान्तरेणेति वचनात्
हिवें ए नयनें प्रमाण कहिये किंवा अप्रमाण कहियै? प्रमाण ते यथार्थ- कहिंदूं, अप्रमाण ते अयथार्थ- कहिदूं। इम कोइ पूछ तेहनें इम कहियें— नाप्रमाणं प्रमाणं वा प्रमाणांशस्तथैव हि। नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशौ यथैव हि। (तुलना-नयोपदेश-९)
नय ते प्रमाणनो अंश छ। जे प्रमाण नही अप्रमाण नही तेहनें प्रमाणांश कहिये, कथंचित्प्रमाणने कहे 3 ते माटें। समुद्र जल पसलीनी परें। जिम समुद्रमांहिथी जलनी पसली भरी छै तेतला जलने समुद्र न कहिये जो तेहनें ज समुद्र कहिये तो पूठिला जलने समुद्रपणुं टलेस्यै। समुद्र नाम एक छै तिम। असमुद्र पिण न कहिये जो तेतला जलनैं समुद्रपणुं नथी तो पूठिला जलने पिण समुद्रपणुं टलसें ते माटे पसली ज में समुद्रांश कहिये तिम नयनें पिण प्रमाणांश कहिये।
तथा समस्तांश जेहने विषै रह्या छै तेहने प्रमाण कहीयें। प्रमाणनयैरधिगमः प्रमाण अमें नयें करी सकल वस्तुनुं अधिगम छै।
ते नय सात प्रकारना छ। नेगमसंगहववहारे, उज्जुसुए चेव होइ बोधव्वे। सद्दे य समभिरूढे एवंभूए य मूलनया॥
पहिलो नय नैगम(१) बीजो संग्रह(२) त्रीजो व्यवहार(३) चोथो ऋजुसूत्र(४) पांचमो शब्द(५) छठो समभिरूढ(६) सातमो एवंभूत(७) ए सात मूलनय।