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________________ २. अवाङ्मुखमल्लक, ३. संपुटकमल्लक, ४. उत्तानकखंडमल्लक, ५.अवाङ्मुखखंडमल्लक, ६. संपुटखंडमल्लक. ७. भित्ति, ८. पडालि, ९. वलभी, १०. अक्षाटक, ११. रुचक, १२. काश्यपका 'मास' पद का विविध निक्षेपों से व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने नक्षत्रमास, चंद्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास, और अभिवर्धितमास का स्वरूप बताया है। इसके बाद मासकल्पविहारियों का स्वरूप बताते हुए जिनकल्पिक स्थविरकल्पिक आदि के स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया है। जिनकल्पिक जिनकल्पिक की दीक्षा की दृष्टि से धर्म, धर्मोपदेशक और धर्मोपदेश के योग्य भवसिद्धिकादि जीवों का स्वरूप बताते हुए धर्मोपदेश की विधि और उसके दोषों का निरूपण किया गया है। जिनकल्पिक की शिक्षा का वर्णन करते हुए शास्त्राभ्यास से होने वाले आत्महित, परिज्ञा, भावसंवर, संवेग, निष्कंपता, तप, निर्जरा, परदेशकत्व आदि गुणों की ओर संकेत किया गया है। जिनकल्पिक कब हो ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जिनकल्पिक जिन अर्थात् तीर्थंकर के समय में अथवा गणधर आदि केवलियों के समय में हो। इस प्रसंग का विशेष विस्तार करते हुए आचार्य ने तीर्थंकर के समवसरण(धर्मसभा) का वर्णन किया है। इस वर्णन में निम्न विषयों का परिचय दिया गया है— वैमानिक, जोतिष्क, भवनपति, व्यंतर आदि देव एक साथ एकत्रित हुए हों उस समय समवसरण की भूमि साफ करना, सुगंधित पानी, पुष्प आदि की वर्षा बरसाना, समवसरण, के प्राकार, द्वार, पताका, ध्वज, तोरण, चित्र, चैत्यवृक्ष, पीठिका, देवच्छंदक, आसन, छत्र, चामर, आदि की रचना और व्यवस्था, इंद्र आदि महर्द्धिक देवों का अकेले ही समवसरण की रचना करना, समवसरण में तीर्थंकरों का किस समय किस दिशा से किस प्रकार प्रवेश होता है, वे किस दिशा में मुख रख कर उपदेश देते हैं, प्रमुख गणधर कहाँ बैठते है, अन्य दिशाओं में तीर्थंकरों के प्रतिबिंब कैसे होते हैं, गणधर, केवली, साधु, साध्वियाँ, देव, देवियाँ, पुरुष, स्त्रियाँ आदि समवसरण में कहाँ बैठते हैं अथवा खडे रहते हैं, समवसरण में एकत्रित देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि की मर्यादाएँ और पारस्परिक ईर्ष्या आदि का त्याग, तीर्थंकर की अमोघ देशना, धर्मोपदेश के प्रारंभ में तीर्थंकरों द्वारा तीर्थ को नमस्कार और उसके कारण, समवसरण में श्रमणों के आगमन की दूरी, तीर्थंकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की रूप, संहनन, संस्थान, वर्ण, गति, सत्त्व, उच्छवास आदि शुभाशुभ प्रकृतियाँ, तीर्थंकर के रूप की सर्वोत्कृष्टता का कारण, श्रोताओं के संशयों का समाधान, तीर्थंकर की एकरूप भाषा का विभिन्न भाषा-भाषी श्रोताओं के लिए विभिन्न रूपों में १.गा.१०९४-११११। २.गा.११४३-११७१। ३.गा.११७२। (४०)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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