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है; उसके मूल को प्रलंब कहते हैं। प्रलंब शब्द से यहाँ मूलप्रलंब का ग्रहण करना चाहिए।'
प्रलंबग्रहण संबंधी प्रायश्चितों की ओर संकेत करते हुए तत्र प्रलंबग्रहण अर्थात् जहाँ पर ताड आदि वृक्ष हों वहाँ जाकर गिरे हुए अचित्त प्रलंबादि का ग्रहण करते समय जिन दोषों की संभावना रहती है उनका स्वरूप बताया गया है। इसी प्रकार सचित्त प्रलंबादि से संबंधित बातों की ओर भी निर्देश किया गया है। देव, मनुष्य तथा तिर्यंच के अधिकार में रहे हुए प्रलंबादि का स्वरूप, तद्ग्रहणदोष आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। प्रलंबादि का ग्रहण करने से लगनेवाले आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व और आत्म-संयमविराधना दोषों का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य के अज्ञान और व्यसनों की ओर संकेत किया गया है। गीतार्थ के विशिष्ट गुणों का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने गीतार्थ को प्रायश्चित्त न लगने के कारणों की मीमांसा की है। गीतार्थ की केवली के साथ तुलना करते हुए श्रुतकेवली के वृद्धि-हानि के षट्स्थानों की ओर संकेत किया है।' ____ द्वितीय प्रलंबसूत्र के व्याख्यान में निम्न विषयों का समावेश किया गया है—निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए टूटे हुए ताल-प्रलंब के ग्रहण से संबंध रखनेवाले अपवाद, निग्रंथ-निग्रंथियों के देशांतर-गमन के कारण और उसकी विधि, रोग और आतंक का भेद, रुग्णावस्था के लिए विधि-विधान, वैद्य और उनके आठ प्रकार।
शेष प्रलंबसूत्रों का विवेचन निम्न विषयों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है—पक्कतालप्रलंबग्रहणविषयक निषेध, 'पक्क' पद के निक्षेप, 'भिन्न' और 'अभिन्न' पदों की व्याख्या, तद्विषयक षड्भंगी, तत्संबंधी प्रायश्चित्त, अविधिभिन्न और विधिभिन्न तालप्रलंब, तत्संबंधी गुण, दोष और प्रायश्चित्त, दुष्काल आदि में निग्रंथ-निग्रंथियों के एक दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, तत्संबंधी १४४ भंग और तद्विषयक प्रायश्चित्त। मासकल्पप्रकृतसूत्र
मासकल्पविषयक विवेचन प्रांरभ करते समय सर्वप्रथम आचार्य ने प्रलंबप्रकृत और मासकल्पप्रकृत के संबंध का स्पष्टीकरण किया है। प्रथम सूत्र की विस्तृत व्याख्या के लिए ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, शंकर आदि पदों का विवेचन किया है। ग्राम का नामग्राम, स्थापनाग्राम, द्रव्यग्राम, भूतग्राम, आतोद्यग्राम, इंद्रियग्राम, पितृग्राम, मातृग्राम, और भावग्राम— इन नौ प्रकार के निक्षेपों से विचार किया गया है। द्रव्यग्राम बारह प्रकार का होता है— १. उत्तानकमल्लक,
१.गा. ८५०। २.गा. ८६३-९२३। ३. गा.९२४-९५०। ४.गा.९५१-१०००। ५.गा.१००१-१०३३। ६.गा.१०३४-१०८५। ७.गा.१०८८-१०९३।
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