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पंचकल्प-महाभाष्य के प्रणेता। ये दोनों आचार्य एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं क्योंकि वसुदेवहिंडिमध्यम खंड के कर्ता आचार्य धर्मसेनगणि महत्तर के कथनानुसार वसुदेवहिंडि- प्रथम खंड के प्र संघदासगणि ‘वाचक’ पद से विभूषित थे, जबकि भाष्यप्रणेता संघदासगणि 'क्षमाश्रमण' पदालंकृत है।' आचार्य जिनभद्र का परिचय देते समय हमने देखा है की केवल पदवी-भेद से व्यक्ति-भेद की कल्पना नहीं की जा सकती। एक ही व्यक्ति विविध समय में विविध पदवियां धारण कर सकता है। इतना ही नहीं, एक ही समय में एक व्यक्ति के लिए विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न पदवियों का प्रयोग किया जा सकता है। कभी-कभी तो कुछ पदवियाँ परस्पर पर्यायवाची भी बन जाती हैं। ऐसी दशा में केवल ‘वाचक’ और ‘क्षमाश्रमण' पदवियों के आधार पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन पदवियों को धारण करने वाले संघदासगणि भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे। मुनि श्री पुण्य विजयजी ने भाष्यकार तथा वसुदेवहिंडिकार आचार्यों को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने के लिए एक और हेतु दिया है जो विशेष बलवान् है। आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती ग्रंथ में वसुदेवहिंडि-प्रथम खंड में चित्रित ऋषभदेवचरित की संग्रहणी गाथाएँ बनाकर उनका अपने ग्रंथ में समावेश भी किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वसुदेवहिंडि-प्रथम खंड के प्रणेता संघदासगणि आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं।' संघदासगणि भी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती ही है।
बृहत्कल्प-लघुभाष्य
बृहत्कल्प-लघुभाष्य' के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का सुविस्तृत विवेचन किया गया है। लघुभाष्य होते हुए भी इसकी गाथा - संख्या ६४९० है। यह छ— उद्देशों में विभक्त है। इनके अतिरिक्त भाष्य के प्रारंभ में एक विस्तृत पीठिका भी है जिसकी गाथासंख्या ८०५ है। इस भाष्य में प्राचीन भारत की कुछ महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री भी सुरक्षित है। डॉ. मोतीचंद्र ने अपनी पुस्तक सार्थवाह (प्राचीन भारत की पथ-पद्धति) * में इस भाष्य की कुछ सामग्री 'यात्री और सार्थवाह' का परिचय देने की दृष्टि से उपयोग किया है। इसी प्रकार अन्य दृष्टियों से भी इस सामग्री का उपयोग हो सकता है। भाष्य के आगे दिये जानेवाले विस्तृत परिचय से इस बात का पता लग सकेगा कि इसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास की कितनी सामग्री भरी पडी है।
पीठिका
विशेषावश्यक भाष्य की ही भाँति इस भाष्य में भी प्रारंभिक गाथाओं में मंगलवाद की चर्चा
१. निर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्यपेत बृहत्कल्पसूत्र ( षष्ठ भाग) प्रस्तावना, पृ. २० । २. निर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्यपेत बृहत्कल्पसूत्र (षष्ठ भाग) प्रस्तावना, पृ.२०–२१। ३. निर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्त्युपेत बृहत्कल्पसूत्र (६ भाग) : संपादक — मुनि चतुरविजय एवं पुण्यविजय; प्रकाशक-श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, सन् १९३३, १९३६, १९३६, १९३८, १९३८, १९४२ । ४. सार्थवाह (प्राचीन भारत की पथ-पद्धति) : प्रकाशक — बिहार- राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, सन् १९५३ ।
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