SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय उद्देश तृतीय उद्देश में इकतीस सूत्र हैं। उपाश्रय-प्रवेशसंबंधी प्रथम सूत्र में बतलाया गया है कि निर्ग्रथों को निर्ग्रथियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग इत्यादि कुछ भी नहीं करना चाहिए। द्वितीय सूत्र में निर्ग्रथियों को निर्ग्रथों के उपाश्रय में बैठने आदि का निषेध किया है। चर्म विषयक चार सूत्रों में बताया गया है कि निर्ग्रथियों को रोमयुक्त - सलोम चर्म का बैठने आदि में उपयोग करना अकल्प्य है। निर्ग्रथ गृहस्थ द्वारा परिभोग किया हुआ— काम में लिया हुआ सलोम चर्म एक रात के लिए अपने काम में ले सकता है । तदनंतर उसे वापिस मालिक को लौटा देना चाहिए।' निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को कृत्स्न अर्थात् वर्ण- प्रमाणादि से प्रतिपूर्ण चर्म का उपयोग अथवा संग्रह करना अकल्प्य है। वे अकृत्स्न चर्म का उपयोग एवं संग्रह कर सकते हैं। वस्त्रविषयक सूत्रों में यह बताया गया है कि निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को कृत्स्न वस्त्र का संग्रह एवं उपयोग करना अकल्प्य है। उन्हें अकृत्स्न वस्त्र का संग्रह एवं उपयोग करना चाहिए। इसी प्रकार साधुसाध्वियों को अभिन्न अर्थात् अच्छिन्न (बिना फाड़ा) वस्त्र काम में नहीं लेना चाहिए। निर्ग्रथियों को अवग्रहानंतक (गुह्यदेशपिधानक - कच्छा) व अवग्रहपट्टक (गुह्यदेशाच्छादक = पट्टा) का उपयोग करना चाहिए। त्रिकृत्स्नविषयक सूत्र में बताया गया है कि प्रथम बार दीक्षा लेने वाले साधु को रजोहरण, गोच्छक, प्रतिग्रह (पात्र) एवं तीन वस्त्र (जिनके आवश्यक उपकरण बन सकते हो ) लेकर प्रव्रजित होना चाहिए। पूर्व-प्रव्रजित साधु को पुनः दीक्षा ग्रहण करते समय नई उपधि न लेते हुए अपनी पुरानी उपधि के साथ ही दीक्षित होना चाहिए। चतुः कृत्स्नविषयक सूत्र में पहले-पहल दीक्षा लेने वाली साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रों का विधान किया गया है। शेष उपकरण साधु के समान चाहिए। समवसरणसंबंधी सूत्र में ग्रंथकार ने बताया है कि निर्ग्रथों-निर्ग्रथियों को प्रथम समवसरण अर्थात् वर्षाकाल में वस्त्र ग्रहण करना अकल्प्य है । द्वितीय समवसरण अर्थात् ऋतुबद्धकाल - हेमंतग्रीष्मऋतु में वस्त्र लेने में कोई दोष नहीं। यथारात्निकवस्त्रपरिभाजनप्रकृत सूत्र में निर्ग्रथ - निर्ग्रथियों को यथारत्नाधिक अर्थात् छोटे-बडे की मर्यादा के अनुसार वस्त्र-विभाजन करने का आदेश दिया गया है। इसी प्रकार सूत्रका ने यथारत्नाधिक शय्या - संस्तारक परिभाजन का भी विधान किया है एवं बताया है कि कृतिकर्म=वंदनादि कर्म के विषय में भी यही नियम लागू होता है। १. रंग आदि से जिसका आकार आकर्षक एवं सुंदर बनाया गया है वह कृत्स्र वस्त्र है। अभिन्न वस्त्र बिना फाडे हुए पूरे वस्त्र को कहते हैं, चाहे वह सादा हो अथवा रंगीन । श्रमण श्रमणियो के लिए इन दोनों प्रकार के वस्त्रों का निषेध किया है। ( २८ )
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy