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शेष के यहाँ से आहारादि लिया जा सकता है। घर से बाहर निकाला हुआ एवं अन्य किसी के आहार के साथ मिलाया हुआ अथवा न मिलाया हुआ सागारिक के घर का आहार अर्थात् बहिरनिष्क्रामित (बहिरनिर्हृत) संसृष्ट अथवा असंसृष्ट सागारिकपिंड साधु-साध्वियों के लिए अकल्प्य है। हाँ, घर से बाहर निकाला हुआ एवं अन्य किसी के पिंड के साथ मिलाया हुआ सागारिकपिंड उनके लिए कल्प्य है। जो निर्ग्रथ-निर्ग्रथी घर से बाहर निकाले हुए सागारिक के असंसृष्ट पिंड को संसृष्ट पिंड करते हैं अथवा उसके लिए सम्मति प्रदान करते हैं वे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते है।'
किसी के यहाँ से सागारिक के लिए आहारादि आया हुआ हो एवं सागारिक ने उसे स्वीकार कर लिया हो तो वह साधु-साध्वियों के लिए अकल्प्य है। यदि सागारिक उसे अस्वीकार कर देता है तो वह पिण्ड साधु-साध्वियों के लिए कल्प्य है। सागारिक की निर्हृतिका (दूसरे के यहाँ भेजी हुई सामग्री) दूसरे ने स्वीकार न की हो तो वह निर्ग्रथ - निर्गंन्थियों के लिए अकल्प्य है किंतु यदि उसने स्वीकार कर ली हो तो कल्प्य है।'
सागारिक का अंश अर्थात् हिस्सा अलग न किया हो तो दूसरे का अंशिकापिंड भी श्रमण-श्रमणियों के लिए अकल्प्य है। सागारिक का अंश अलग करने पर ही दूसरे का अंश ग्रहणीय होता है। '
सागारिक के कलाचार्य आदि पूज्य पुरुषों के लिए तैयार किया हुआ प्रातिहारिक अर्थात् वापिस लौटाने योग्य अशनादि सागारिक स्वयं अथवा उसके परिवार का कोई व्यक्ति साधु-साध्वी को दे तो वह अग्रहणीय है। इसी तरह इस प्रकार का अशनादिक सागारिक का पूज्य स्वयं दे तब भी वह अकल्प्य है। अप्रातिहारिक अर्थात् वापिस न लौटने योग्य अशनादि सागारिक अथवा उसका परिजन दे तो अकल्प्य है किंतु यदि सागारिक का पूज्य स्वयं दे तो कल्प्य है। *
निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को पाँच प्रकार के वस्त्र धारण करना कल्प्य है— जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक, और तिरीटपट्टक
श्रमण-श्रमणियों को पाँच प्रकार के रजोहरण रखना कल्प्य है— और्णिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक।
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१. उ. २, सू. १३-६ । २.उ.२, सू.१७-८। ३.उ. २, सू.१९। ४. उ. २, सू.२० - ३ । ५. उ. २, सू. २४ ( जङ्गमाः त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जागमिकम्, सूत्रे प्राकृतत्वाद् मकारलोपः, भङ्गा अतसी तन्मयं भाङ्गिकम्, सनसूत्रमयं सानकम्, पोतकं कार्पासिकम्, तिरीटः वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कलक्षणस्तन्निष्पन्नं तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम्)। ६. उ. २, सू.२५('और्णिकं' ऊरणिकानामूर्णाभिर्निर्वृत्तम्, 'औष्ट्रिकं' उष्ट्ररोमभिर्निवृत्तम्, 'सानकं' 'सनवृक्षवल्काद् जातम्, 'वच्चकः' तृणविशेषस्तस्य 'चिप्पकः' कुट्टितः त्वग्रूपः तेन निष्पन्नं वच्चकचिप्पकम्, 'मुञ्जः' शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुञ्जचिप्पकं नाम पञ्चममिति)।
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