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तृतीयो व्यवहारतरङ्गः
(अर्थः) पति की भक्ति छोडकर व्रत करना, तीर्थयात्रा पर जाना,पति परदेश हो या बिमार हो फिर भी
शरीरसज्जा में लीन रहना, दूसरे के घर महल में, जागरण उत्सव में, माता के घर, सभा में हमेशा
जाना कुलवती स्त्रियों के लिए योग्य नहीं हैं। [मूल) अश्लीलामितवक्तृत्वमशुचित्वं कुशीलता।
नित्यं कलहकारित्वं स्त्रियो दौर्भाग्यकारणम्॥२४४॥(३.५०) (अन्वयः) अश्लीलामितवक्तृत्वमशुचित्वं कुशीलता नित्यं कलहकारित्वं स्त्रियो दौर्भाग्यकारणम्। (अर्थः) अश्लील और अधिक भाषण, अशुद्धता, कुशीलता, सतत कलह करना ये स्त्रियों के दुर्भाग्य के
कारण होते हैं। मल] सीतेव प्रियविप्रियं न कुरुते हंसीव पक्षद्वयम्,
शुद्धं व्यातनुते पृथेव सततं या पुत्ररत्नप्रसूः। नित्यं सर्वकुटुम्बभारवहने सर्वंसहेव क्षमा,
कान्ता मन्दिरमण्डनं सुकृतिनः सा देहिनीवेन्दिरा॥२४५॥(३.५१) (शार्दूलविक्रीडितम्) (अन्वयः) (या) सीतेव प्रियविप्रियं न कुरुते, हंसीव पक्षद्वयम् शुद्धं व्यातनुते, पृथेव सततं या पुत्ररत्नप्रसूः, नित्यं
सर्वकुटुम्बभारवहने सर्वंसहेव क्षमा सा कान्ता सुकृतिनः मन्दिरमण्डनं देहिनी इन्दिरा। (अर्थः) जो सीता की तरह कभी पति का विरोध नहि करती, हंसी की तरह पितृपक्ष और श्वसुरपक्ष की शुद्धि
करती है,पृथ्वी की तरह निरंतर पुत्ररत्नों को जन्म देती है,धरती की तरह समूचे कुटुंब का भार वहन
करने में समर्थ है ऐसी स्त्री पुण्यवंत के घर की साक्षात् लक्ष्मी है। [मूल] यस्य स्त्रीरत्नभोगोऽस्ति स निःस्वोऽपि महीपतिः।
सुभोज्यं वनितारत्नं राज्यसारं विदुर्बुधाः॥२४६॥(३.५२) (अन्वयः) यस्य स्त्रीरत्नभोगः अस्ति सः निःस्वः अपि महीपतिः। सुभोज्यं वनितारत्नं राज्यसारं बुधाः विदुः। (अर्थः) विद्वज्जन, जिसको स्त्री रूपी रत्न का भोग(प्राप्त) है, का धन न होते हुए भी पृथ्वीपति समझते हैं,
अच्छे उपभोग योग्य स्त्रीरत्न को (ही) राज्य का सार समझते हैं। [मूल| श्रुतं दृष्टं स्मृतं चापि मनः प्रह्लाददायकम्।
त्रिवर्गफलदं नान्यद्रत्नं स्त्रीभ्यो हि दृश्यते॥२४७॥(३.५३) (अन्वयः) श्रुतं दृष्टं स्मृतं चापि मनः प्रह्लाददायकं त्रिवर्गफलदं स्त्रीभ्यो नान्यद्रत्नं हि दृश्यते। (अर्थः) सुना गया, देखा गया, स्मरण किया गया मन को आनन्दित करनेवाला, तीनों लोकों को फल देने
वाला ऐसा स्त्री से अन्य रत्न नहीं दिखता है।
१. अयं श्लोकः हस्तप्रतिष न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८