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________________ द्वितीयो नयतरङ्गः अथ कुमारः। [मूल] राज्ञा बाल्येऽपि पुत्रस्य शिक्षा कार्या प्रयत्नतः। सरसो नम्रतां याति वंशोऽसौ नैव नीरसः॥१३१॥(२.४४) (अन्वयः) राज्ञा प्रयत्नतः बाल्येऽपि पुत्रस्य शिक्षा कार्या, सरसः असौ वंशः नम्रतां याति, न नीरस एव। (अर्थः) राजा के द्वारा प्रयत्न से बाल्य काल में ही पुत्र को शिक्षा देनी चाहिए, रस से युक्त ऐसा बांस हि नमता है, रस रहित नहि। [मूल] पित्रा सुशिक्षितः पुत्रो न दुष्टव्यसनी भवेत्। किं न बर्करवत् कुर्याद्राजपुत्रो निरर्गलः॥१३२॥(२.४५) (अन्वयः) पित्रा सुशिक्षितः पुत्रः दुष्टव्यसनी न भवेत्, निरर्गलः राजपुत्रः बर्करवत् किं न कुर्यात्? (अर्थः) पिता के द्वारा सुशिक्षित ऐसा पुत्र दुर्व्यसनी नही होता है, बंधनरहित बकरे के समान राजपुत्र क्या नहि करेगा? [मूल] यस्तु राजकुमारोऽपि परिवारपराङ्मखः। दुष्टव्यसनसंसक्तो न राज्यं प्राप्नुयात्क्वचित्॥१३३॥(२.४६) (अन्वयः) यः परिवारपरामुखः दुष्टव्यसनसंसक्तः राजकुमारोऽपि क्वचित् राज्यं न प्राप्नुयात्। (अर्थः) जो परिवार से विमुख हुआ है, दुष्टव्यसनों में आसक्त है, वह राजकुमार होते हुए भी राज्य को नहि प्राप्त करेगा। [मूल] कुमारत्वेऽपि यः स्वाज्ञां प्रतापं जयपद्धतिम्। न लिखेत् स्वशरैर्वक्षस्यरातेः स न राज्यभाक्॥१३४॥(२.४७) (अन्वयः) यः कुमारत्वेऽपि स्वशरैः अरातेः वक्षसि स्वाज्ञां प्रतापं जयपद्धतिं न लिखेत् स न राज्यभाक्। (अर्थः) जो कुमार होते हुवे भी खुद के बाणों से शत्रु के सीने पर खुद का आदेश (आज्ञा), पराक्रम और जयपद्धति (विजय) को न लिखे तो वह राज्य के योग्य नहि है। [मूल| यौवराज्ये श्रुते यस्य रिपोस्तत्पितृधूमिते। हृदये नोत्थितो वह्निः कथमग्रे स राज्यभाक्?॥१३५॥(२.४८) (अन्वयः) तत्पितृधूमिते यौवराज्ये श्रुते यस्य रिपोः हृदये वह्निः नोत्थितो कथं अग्रे स राज्यभाक्? (अर्थः) पिता के द्वारा धूमित ऐसे युवराज पद की बात सुनकर जिसके शत्रु के हृदय में अग्नि उत्थित नहि होता आगे वह कैसे राज्य से युक्त होगा?
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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