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________________ बुद्धिसागरः [मूल] दया धर्मतरोर्मूलं क्षमा विज्ञानशाखिनः। गुणानां विनयो मूलं नाशमूलं सगर्वता॥७३॥(१.७३) (अन्वयः) धर्मतरोर्मूलं दया, विज्ञानशाखिनः क्षमा, गुणानां मूलं विनयः, नाशमूलं, सगर्वता। (अर्थः) धर्म रूपी वृक्ष का मूल दया है, ज्ञान रूपी वृक्ष का मूल क्षमा है, गुणों का मूल विनय है और नाश का मूल गर्व है। [मूल] दुराचारपरो धृष्टः पुण्यवन्तं विनिन्दति। नूनं कलेः प्रभावोऽयं विद्वान्मूर्खेण जीयते॥७४॥(१.७४) (अन्वयः) दुराचारपरो धृष्टः पुण्यवन्तं विनिन्दति नूनं कलेः प्रभावः अयं विद्वान् मूर्खेण जीयते। (अर्थः) दुराचार से युक्त कपटी(विश्वासघाती) पुरुष पुण्यवान् पुरुष की निन्दा करता है। सच में कलियुग का यह प्रभाव है (जो)विद्वान् मूर्ख के द्वारा जीता जाता है। अथ मातापितरौ। [मूल] श्रेयस्कारि मनोहारि नित्यमानन्ददायि च। दुर्लभं मानुषे लोके पित्रोः सन्दर्शनं महत्॥७५॥(१.७५) (अन्वयः) मानुषे लोके श्रेयस्कारि मनोहारि नित्यम् आनन्ददायि च पित्रोः सन्दर्शनं महत् दुर्लभम्। (अर्थः) मनुष्य लोक में श्रेयस्कारी, मन का हरन करने वाले, सदा आनन्द को देनेवाले ऐसे माता पिता का सत्दर्शन बहुत ही दुर्लभ है। [मूल| सर्वतीर्थमयौ ज्ञेयौ पितरौ पुण्यरूपिणौ। तयोराज्ञां विना पुत्रो नैव तीर्थान्तरं व्रजेत्॥७६॥(१.७६) (अन्वयः) पुण्यरूपिणौ पितरौ सर्वतीर्थमयौ ज्ञेयौ तयोः आज्ञां विना पुत्रः तीर्थान्तरं नैव व्रजेत्। (अर्थः) पुण्यस्वरूप माता-पिता सर्व तीर्थस्वरूप है ऐसा जानना चाहिए। उनकी आज्ञा के विना पुत्र को अन्य तीर्थ को नहीं जाना चाहिए। [मूल] पितरौ चेदनादृत्य मूर्खस्तीर्थपथं व्रजेत्। हस्ताच्चिन्तामणिं त्यक्त्वा दूरस्थं काचमञ्चति॥७७॥(१.७७) (अन्वयः) पितरौ अनादृत्य चेत् (यः) मूर्खस्तीर्थपथं व्रजेत्, (सः) हस्तात् चिन्तामणिं त्यक्त्वा दूरस्थं काचमञ्चति। (अर्थः) यदि माता पिता का अनादर करके (जो) मूर्ख तीर्थ को जाता है (वह) हाथ से चिन्तामणि(चिन्तामणि रूपी रत्न) का त्याग करके दर में स्थित काँच की इच्छा करता है।
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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