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________________ प्रथमो धर्मतरङ्गः (अन्वयः) विदेशगः राजवंश्यः अधिकारी व्यवसायी वा निर्धनत्वान्धकूपात् तु सदैव हि समुद्धार्यः। (अर्थः) विदेश में जानेवाले राजवंशीय, अधिकारी, व्यवसायी को निर्धनरूपी अन्धकार युक्त कुवे से सदा बाहर निकालना चाहिए। [मूल| कस्यचित्प्रार्थनाभङ्गो नैव कार्यः स्वशक्तितः। मदनज्वरतप्ताङ्गीं परनारिं विनानिशम्॥६८॥(१.६८) (अन्वयः) मदनज्वरतप्ताङ्गीं परनारिं विना अनिशम् स्वशक्तितः कस्यचित् प्रार्थनाभङ्गो नैव कार्यः। (अर्थः) कामासक्त पर स्त्री को छोडकर खुद की शक्ति से किसी की भी प्रार्थना का भंग नहीं करना चाहिए। [मूल] धनेनान्नेन वस्त्रेण वचनेन प्रियेण वा। अतिथिः सर्वदा पूज्यः सुशीतलजलेन वा॥६९॥(१.६९) (अन्वयः) अतिथिः धनेन अन्नेन वस्त्रेण वा प्रियेण वचनेन वा सुशीतलजलेन सर्वदा पूज्यः। (अर्थः) धन के द्वारा, अन्न के द्वारा, वस्त्र के द्वारा, प्रियवचन के द्वारा अथवा शीतलजल के द्वारा अतिथि की सदा पूजा करनी चाहिए। |मूल] अतिथिर्विमुखो याति गृहात्तु गृहमेधिनः। तस्य तद्दिनजं पुण्यं गृहित्वैव प्रयात्यसौ॥७०॥(१.७०) (अन्वयः) गृहमेधिनः तु गृहात् अतिथिः विमुखो याति तस्य तद्दिनजं पुण्यं गृहित्वैव असौ प्रयाति। (अर्थः) किन्तु गृहस्थ के घर से जो अतिथि विमुख(खाली हाथ) जाता है वह उस गृहस्थ के उस दिन का पुण्य लेकर ही जाता है। [मूल] शुकपारापतश्येनमार्जारशुनकानपि। वन्यानथ मृगादींश्च क्रीडार्थं नैव पालयेत्॥७१॥(१.७१) (अन्वयः) अथ शुकपारापतश्येनमार्जारशुनकान्, वन्यान् मृगादिश्च अपि क्रीडार्थं नैव पालयेत्। (अर्थः) तोता, कबूतर,बाज, बिल्ली, कुत्ता आदि को और वन्य हरिण आदि को खेलने के लिए(मनोरंजन के लिए) नहीं पालना चाहिए। मूल] सा क्रीडा नैव कर्तव्या जीवद्रोहो भवेद्यया। निन्दितः पापहेतुत्वाज्जीवद्रोहः स्वकामतः॥७२॥(१.७२) (अन्वयः) यया जीवद्रोहो भवेत् सा क्रीडा नैव कर्तव्या स्वकामतः जीवद्रोहः पापहेतुत्वात् निन्दितः। (अर्थः) जिस के द्वारा जीवद्रोह(जीव का नाश) होता है वह क्रीडा नहीं करनी चाहिए। खुद की इच्छा से किया हुआ जीवद्रोह पाप का कारण होने से निन्दित है।
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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