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________________ प्रथमो धर्मतरङ्गः [मूल] भूयात् सदर्थसम्पत्तिव्यवहारविवेकवित् । विश्वं मदुपकृत्यैव युगपत् श्रीसमन्वितम्॥१३॥ (१.१३) चिन्तयन्निति सङ्ग्रामो जगज्जनहिते रतः । शास्रकर्तृच्छलेनैव विश्वोपकरणव्रतम्॥१४॥(१.१४) [मूल] स्वयमङ्गीकृतं पूर्णं प्रका(क) रोत्यघननाशनम्। स्थापकः सर्वधर्माणां जिनधर्मधुरन्धरः ॥१५॥ (१.१५) (त्रिभिर्विशेषकम् ) (अन्वयः) मदुपकृत्यैव च युगपत् श्रीसमन्वितं विश्वं भूयात्, इति चिन्तयन् जगज्जनहिते रतः सदर्थसम्पत्तिव्यवहारविवेकवित्, जिनधर्मधुरन्धरः सर्वधर्माणां स्थापकः सङ्ग्रामः शास्त्रकर्तृच्छलेनैव स्वयमङ्गीकृतं अघनाशनं विश्वोपकरणव्रतं पूर्णं प्रकरोति। और मेरे उपकार के साथ ही लक्ष्मी से युक्त ऐसा विश्व होवे, ऐसा विचार करता हुआ जगत के लोगों के हित में रत ऐसा, सम्यक् अर्थ, सम्पत्ति, व्यवहार, विवेक को जाननेवाला, ऐसा जिनधर्मधुरंधर, सर्वधर्मों की स्थापना करने वाला संग्राम शास्त्रकर्ताओं के छल से हि विश्व के ऊपर उपकार करने का स्वयं ही धारण किया हुआ पापों का नाशक व्रत पूरा करता है। [मूल] नातिविस्तारमत्यन्तहितार्थशतसङ्कुलम्। प्रसन्नार्थमतः शास्त्रं मान्यमेतन्मनीषिभिः॥१६॥ (१.१६) (अन्वयः) नातिविस्तारम्, अत्यन्तहितार्थशतसङ्कुलम्, प्रसन्नार्थम्, अतः एतत् शास्त्रं मनीषिभिः मान्यम्। (अर्थः) जो अति विस्तीर्ण नहि है, अत्यन्त हित के कारण ऐसे सैंकडो अर्थ का समूह जिसमें है, और जिसमें प्रसन्न अर्थ है, इसिलिए यह शास्त्र विद्वानों के द्वारा मान्य हो । [मूल] (अर्थः) की सौ कलाओं से सुशोभित, सद्धर्म, नय, शुद्धार्थव्यवहार और प्रकीर्णक इन चारो तरंगो से युक्त, विद्वानों को प्रिय, सर्वदर्शनमान्य ऐसे बुद्धिसागर नाम के शास्त्र की रचना करता है। नामो [मूल] ये चोपहासनिरताः सदा दोषैकदृष्टयः । कृतोऽयमञ्जलिस्तेभ्यः क्षमध्वं चापलं मम ॥ १७॥ (१.१७) (अन्वयः) ये सदा दोषैकदृष्टयः उपहासनिरताश्च तेभ्यः अयं अञ्जलिः कृतः, मम चापलं क्षमध्वम्। (अर्थः) [मूल] 3 जो सदा दोष हि देखते है और उपहास में रत है, उनको यह अंजलि है । मेरी चंचलता को माफ करें। धर्मान्नयप्रवृत्तिः स्यान्नयात् सद्व्यवहारधीः। व्यवहारात्प्रसीदन्ति प्रकीर्णार्थाः सुनिश्चिताः ॥१८॥(१.१८) (अन्वयः) धर्मात् नयप्रवृत्तिः, नयात् सद्व्यवहारधीः, व्यवहारात् सुनिश्चिताः प्रकीर्णार्थाः प्रसीदन्ति । (अर्थः) धर्म से नय (नैतिकता) में प्रवृत्ति होती है, नय (नैतिकता) से सद्व्यवहार वाली बुद्धि प्राप्त होती है, सद्व्यवहार से सुनिश्चित ऐसे प्रकीर्णार्थ फलीभूत होते है।
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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