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________________ बुद्धिसागरः (अर्थः) प्रखर सूर्य के किरणों के द्वारा जिसने वैरी रूपी अंधकार के समूह को धोया है, ऐसा खल्वीकुल रूपी सागर के लिए चंद्र की तरह, भूमि का इंद्र ऐसे उस महमूद की जय हो। [मूल| तस्य च मालवदेशे मण्डपदुर्गेऽत्र भाति सुविनीतः। सङ्ग्रामसिंहनामा भाण्डागाराधिकारीन्द्रः॥६॥(१.६) (अन्वयः) तस्य च अत्र मालवदेशे मण्डपदर्गे सुविनीतः भाण्डागाराधिकारीन्द्रः सङ्ग्रामसिंहनामा भाति। (अर्थः) और उसके यहां मालवदेश के मांडवगढ में भाण्डागार के अधिकारी में इंद्र समान, अतिशय विनय से युक्त ऐसा संग्रामसिंहनाम वाला (भंडारी) शोभित होता है। [मूल] गौतमस्वामिनः प्राप्तवरो भक्त्यातिसादरः। बुद्ध्या अभयकुमारोऽयं वाग्वादिन्याः प्रसादतः॥७॥(१.७) [मूल] __ ओसवाले कुले श्रीमान्नरदेवस्य नन्दनः। निर्मलार्थगभीराणि शास्राण्यालोच्य तत्त्वतः॥८॥(१.८) [मूल] सारमुद्धत्य तेभ्यस्तु निजबुद्ध्यातिशुद्धया। बुद्धिसागरनामेति सर्वदर्शनसम्मतम्॥९॥(१.९) [मूल] सङ्ग्रामो रचयत्येतच्छास्त्रं विश्वोपकारकम्। गभीरमनतिक्रम्यमधीरैर्मन्दबुद्धिभिः॥१०॥(१.१०) [मूल सुवृत्तरत्ननिचयैः पूर्णं लक्ष्मीनिकेतनम्। उद्यद्विवेकपूर्णेन्दुकलाशतसुशोभितम्॥११॥(१.११) मूल] सद्धर्मनयशुद्धार्थव्यवहारप्रकीर्णकैः। तरङ्गनामभिर्युक्तं चतुर्भिर्धीवरप्रियम्॥१२॥(१.१२) (षभिः कुलकम्) (अन्वयः) गौतमस्वामिनः प्राप्तवरः, भक्त्यातिसादरः, वाग्वादिन्याः प्रसादतः बुद्ध्या अभयकुमार: ओसवाले कुले श्रीमान्नरदेवस्य नन्दनः अयं सङ्ग्रामः निर्मलार्थगभीराणि शास्त्राणि तत्त्वतः आलोच्य, तेभ्यस्तु अतिशुद्धया निजबुद्ध्या सारम् उद्धृत्य अधीरैः मन्दबुद्धिभिः अनतिक्रम्यम्, गभीरम्, विश्वोपकारकम्, सुवृत्तरत्ननिचयैः पूर्णम्, लक्ष्मीनिकेतनम्, उद्यद्विवेकपूर्णेन्दुकलाशतसुशोभितम्, सद्धर्मनयशुद्धार्थव्यवहारप्रकीर्णकैः चतुर्भिः तरङ्गनामभिः युक्तम्, धीवरप्रियम्, सर्वदर्शनसम्मतं बुद्धिसागरनाम इति एतत् शास्त्रं रचयति। (अर्थः) गौतमस्वामी से जिसने वर प्राप्त किया है ऐसा, भक्ति से अतिशय सादर, देवी सरस्वती के प्रसाद से बुद्धि से अभयकुमार जैसा, यह संग्राम ओसवालकुल में श्रीमान् नरदेव का पुत्र, निर्मल अर्थवाले गभीर ऐसे शास्त्रों को तत्त्वतः जानकर उन शास्त्रों से अतिशुद्ध ऐसी अपनी बुद्धि से सार निकालकर, अधीर ऐसे मन्दबुद्धिवालों के लिए अबोध्य, गभीर ऐसा विश्व के उपकार का कारण, अच्छी वृत्तरूपी रत्नों के समुदाय से पूर्ण, लक्ष्मी का निवास है जिसमें ऐसा, उपर आये हुए विवेकपूर्ण चंद्र
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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