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________________ मन्त्रिश्रीसङ्ग्रामसिंहविरचितः ॥बुद्धिसागरः॥ (सानुवादः) [प्रथमो धर्मतरङ्गः] [मूल] नमः श्रीवीतरागाय मोहध्वान्तकभानवे। नमज्जनघनानन्दकारिणे विश्वधारिणे॥१॥(१.१) (अन्वयः) मोहध्वान्तकभानवे नमज्जनघनानन्दकारिणे विश्वधारिणे श्रीवीतरागाय नमः। (अर्थः) मोहान्धकार के समूह के लिए सूर्य की तरह, नम्रजन के समूह को आनन्द देने वाले (आनन्दित करने वाले), विश्व को धारण करने वाले ऐसे श्रीवीतराग देव को (मेरा) नमस्कार। मूल) सर्वकल्याणरूपाय सम्पत्सिद्धिप्रदायिने। विघ्नव्रजविनाशाय गौतमस्वामिने नमः॥२॥(१.२) (अन्वयः) सर्वकल्याणरूपाय सम्पत्सिद्धिप्रदायिने विघ्नव्रजविनाशाय गौतमस्वामिने नमः। (अर्थः) सर्व(प्रकारके)कल्याणरूप, संपत्ति और सिद्धि को प्रदान करने वाले, विघ्न के समुदाय का विनाश करने वाले ऐसे गौतमस्वामी को नमस्कार। [मूल| येषां प्रसादतः प्राप्ता बुद्धिर्विश्वोपकारिणी। प्रारिप्सितार्थसिद्ध्यर्थं गुरुभ्यः सर्वदा नमः॥३॥(१.३) (अन्वयः) येषां प्रसादतः विश्वोपकारिणी बुद्धिः प्राप्ता, (तेभ्यः) गुरुभ्यः प्रारिप्सितार्थसिद्ध्यर्थं सर्वदा नमः। (अर्थः) जिनके प्रसादसे विश्व के लिए उपकारक ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है, (ऐसे) गुरु को प्रारम्भ किये हुए इच्छित विषय की सिद्धि के लिए सदा नमस्कार। [मूल] श्रीरत्नसिंहसूरेः पट्टालङ्करणमद्भुतगुणाढ्यम्। गुरुमुदयवल्लभाख्यं सूरिं वन्दामहे सततम्॥४॥(१.४) (आर्या) (अन्वयः) श्रीरत्नसिंहसूरेः पट्टालङ्करणम् अद्भुतगुणाढ्यम् उदयवल्लभाख्यं सूरिं गुरुं सततं वन्दामहे। (अर्थः) श्रीरत्नसिंहसूरि के पट्ट को अलंकृत करने वाले अद्भुत गुणोसे युक्त, श्रीउदयवल्लभसूरि नामक गुरु को हम सदैव वंदन करते है। [मूल] उद्यत्प्रतापदिनकरकिरणैर्निर्धूतवैरितिमिरौघः। खल्वीकुलाब्धिचन्द्रः स जयति महमूदभूमीन्द्रः॥५॥(१.५) (अन्वयः) उद्यत्प्रतापदिनकरकिरणैः निर्धूतवैरितिमिरौघः खल्वीकुलाब्धिचन्द्रः स महमूदभूमीन्द्रः जयति।
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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