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बुद्धिसागरः
[मूल]
(अर्थः) दूसरों के घर में रत, क्रूर, चपल, बहुत बोलने वाली, कलह में प्रेम रखने वाली ऐसी वह स्त्री घर में
आपत्ति है। [मूल] शरीरं रोमशं यस्या निम्नाक्षी ह्रस्वनासिका।
श्मश्रुश्यामोन्नतोष्ठी च वरणीया न कन्यका॥३४६॥(४.८१) (अन्वयः) यस्याः शरीरं रोमशम, निम्नाक्षी, ह्रस्वनासिका, श्मश्रुश्यामोन्नतोष्ठी च कन्यका न वरणीया। (अर्थः) जिसके शरीर पर अत्यधिक रोम हो, जिसकी आँखे नीची हो,जिसका नाक छोटा हो (नकटी हो),
जिसको मूछ आती हो, जिसके ओठ उन्नत हो ऐसी कन्या के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। बिम्बाधराकुरङ्गाक्षी समावयवराजिता।
सौभाग्यलक्षणैर्युक्ता सा कन्योद्वाहितुं शुभा॥३४७॥(४.८२) (अन्वयः) बिम्बाधराकुरङ्गाक्षी समावयवराजिता सौभाग्यलक्षणैः युक्ता सा कन्या उद्वाहितुं शुभा। (अर्थः) जिसके ओठ बिंब की तरह हो, आँखे मृग की तरह हो, शरीर के अवयव सम सुशोभित हो, जो
सौभाग्य लक्षण से युक्त हो, वह कन्या विवाह के लिए शुभ है। [मूल] शुभं वचनमर्चितं विमलमानसं प्रोन्नतं
सतां नयनतुष्टिदं सहजसुन्दरं यद्वपुः। मतिः सुकृतशालिनी परगुणानुवादे रति
र्भवेदुपकृतिप्रियः किमपरैः शुभैर्लक्षणैः॥३४८॥(४.८३) (अन्वयः) यद् वपुः शुभं वचनम्, अर्चितं विमलमानसम्, सतां प्रोन्नतम्, नयनतुष्टिदम्, सहजसुन्दरम्, मतिः
सुकृतशालिनी, परगुणानुवादे रतिः, उपकृतिप्रियः भवेत् अपरैः शुभैः लक्षणैः किम्?। (अर्थः) जिसका वचन शुभ हो, लोगों द्वारा मान्य किया जाता हो, मन निर्मल हो, सज्जनों के नयनों को
आनन्द देनेवाला हो, उन्नत, सहज शरीर हो, जिसकी बुद्धि सुकृत् के विषय में सोचती हो, जिसे दुसरों के गुण गाने में आनन्द आता हो, जिसे उपकार करना अच्छा लगता हो, इस से अतिरिक्त अन्य शुभलक्षण से क्या प्रयोजन है?
अथ रत्नपरीक्षा। [मूल| रत्नशब्दो गुणोत्कर्षाावत्यश्वद्विपादिष।
इह तूपलरत्नानां किञ्चिल्लक्षणमुच्यते॥३४९॥(४.८४) (अन्वयः) रत्नशब्दः गुणोत्कर्षाद् युवत्यश्वद्विपादिषु। इह तु उपलरत्नानां किञ्चित् लक्षणम् उच्यते। (अर्थः) रत्न शब्द - गुण के उत्कर्ष से युवति, घोडा, हाथी आदि अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ पाषाण रूपी
रत्नों का थोडासा लक्षण कहते है।