SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थः प्रकीर्णकतरङ्गः (अन्वयः) यस्य नखताल्वधरापाङ्गजिह्वाकरतलादिषु रक्तत्वं दृश्यते स पुमान् पुरुषोत्तमः। (अर्थः) जिसके नाखून, तालु, ओठ, अपांग(आँख की बाहरी कोर), जिह्वा, हाथ की हथेली आदि में रक्तत्व(रक्त वर्ण) दिखाई देता है वह पुरुष पुरुषोत्तम है। [मूल] ताम्बूलापूरितं वक्त्रं यस्याङ्गं चन्दनार्चितम्। शिरः पुष्पाकराकीर्णं तं लक्ष्मीः समुपासते॥३४१॥(४.७६) (अन्वयः) यस्य अङ्गं चन्दनार्चितम्, वक्त्रं ताम्बूलापूरितम्, शिरः पुष्पाकराकीर्णं तं लक्ष्मीः समुपासते। (अर्थः) जिसका अंग चंदन से अर्चित है, जिसका मुख ताम्बूल से युक्त है, शिर फूलों से युक्त है, ऐसे पुरुष की लक्ष्मी पूजा करती है। मूल) उभयोः सन्ध्ययोः शेते बह्वाहारपरस्तु यः। सदाऽतिनिष्ठुरं ब्रूते स पुमान् हीयते श्रिया॥३४२॥(४.७७) (अन्वयः) यः उभयोः सन्ध्ययोः शेते, बह्वाहारपरः तु सदा अतिनिष्ठुरं ब्रूते, स पुमान् श्रिया हीयते। (अर्थः) जो सुबह और शाम सन्ध्या के समय सोता है, बहुत आहार करता है, अतिनिष्ठुर वचन बोलता है वह पुरुष लक्ष्मी हीन हो जाता है। [मल] तृणच्छेदं नखैर्भूमिलेखनं व्यर्थहास्यताम्। यः करोति नरो मूढः स दरिद्री सदा भवेत्॥३४३॥(४.७८) (अन्वयः) यः तृणच्छेदम्, नखैः भूमिलेखनम्, व्यर्थहास्यताम् करोति, स मूढः नरः सदा दरिद्री भवेत्। (अर्थः) जो घास को तोडता है, नाखून से जमीन को कुरडता है, व्यर्थ हसता है, वह मुर्ख पुरुष सदा दरिद्री होता है। इति सामुद्रिकसारसङ्ग्रहः। अथ स्त्री। [मूल] सदाचारपरा नित्यं सुशीला मितभाषिणी। प्रसन्नवदना साध्वी सा लक्ष्मी गृहमागता॥३४४॥(४.७९) (अन्वयः) (या) नित्यं सदाचारपरा, सुशीला, मितभाषिणी, प्रसन्नवदना, साध्वी सा गृहम् आगता लक्ष्मीः। (अर्थः) जो सदा सदाचार में परायण, अच्छे शीलवाली, कम बोलनेवाली, प्रसन्नमुख वाली (घर में हो तो ऐसा समझना चाहिए की) साक्षात लक्ष्मी घर आई है। [मूल] अन्यगेहरता क्रूरा चपला बहुभाषिणी। साऽऽपद्देहमयी गेहे वनिता कलहप्रिया॥३४५॥(४.८०) (अन्वयः) अन्यगेहरता, क्रूरा, चपला, बहुभाषिणी, कलहप्रिया सा वनिता गेहे आपद्देहमयी।
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy