________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-6]
[71
अपूर्व उल्लास का रोमाञ्च होता है। इसके बाद चैतन्यस्वभाव के रस की उग्रता होने पर, ये विचार (विकल्प) भी छूट जाय, और परिणाम अन्तर्मग्न होकर केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे, सर्व परिणाम, स्वरूप में एकाग्र होकर वर्ते, उपयोग स्वानुभव में प्रवर्ते, इसी का नाम निर्विकल्प आनन्द का अनुभव है। वहाँ दर्शन-ज्ञान -चारित्र सम्बन्धी या नय-प्रमाणादि का कोई विचार नहीं रहता, सभी विकल्पों का विलय हो जाता है। यहाँ पर स्वरूप में ही व्याप्य-व्यापकता है, अर्थात् द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों एकमेक -एकाकार अभेदरूप से अनुभव में आते हैं। अनुभव करनेवाली पर्याय, स्वरूप में व्याप गई है, जुदी नहीं रहती। परभाव, अनुभव से बाहर रह गये, परन्तु निर्मल पर्याय तो अनुभूति के साथ मिल गयी; आत्मा ही अनुभूतिस्वरूप होकर परिणमित हुआ। ____ पहले, विचारदशा में ज्ञान ने जिस स्वरूप को लक्ष्य में लिया
था, उसी स्वरूप में ज्ञान का उपयोग जुड़ गया, और बीच में से विकल्प निकल गया, अकेला ज्ञान रह गया, तब अतीन्द्रिय निर्विकल्प-अनुभूति हुई, परम आनन्द हुआ। ऐसी अनुभूति में प्रतिक्रमण, सामायिक, प्रत्याख्यान आदि सभी धर्म समा जाते हैं। इस अनुभूति को ही 'जैनशासन' कहा है; यही वीतरागमार्ग है, यही जैनधर्म है, यही श्रुत का सार है, सन्तों की व आगम की यही आज्ञा है। शुद्धात्मानुभूति की अपार महिमा है, वह कहाँ तक कहें? आप स्वयं अनुभूति करें, तभी उसकी खबर पड़े।
यह शुद्ध अनुभव अर्थात् निर्विकल्प अनुभव क्या चीज़ है और कैसी यह अन्तरङ्गदशा है-यह जिज्ञासुओं को लक्ष्यगत करना चाहिए। अहा! निर्विकल्प अनुभव का पूरा कथन करने की वाणी
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.