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[ सम्यग्दर्शन : भाग-6
कैवल्य दर्शन - ज्ञान - सुख, कैवल्य शक्ति स्वभाव जो । 'मैं हूँ वही', यह चिन्तवन होता निरन्तर ज्ञानी को ॥ ९६ ॥ निजभाव को छोड़े नहीं, किञ्चित् ग्रहे परभाव नहीं । देखे व जाने 'मैं वही', ज्ञानी करे चिन्तन यही ॥ ९७ ॥
- ऐसे निज आत्मा की भावना करने की शिक्षा मुमुक्षु को दी है और कहा है कि ऐसी भावना के अभ्यास से मध्यस्थता होती है, अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र भी ऐसी निजात्मभावना से प्रगट होते हैं। सम्यग्दर्शन होने के बाद में, एवं सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये भी, ऐसी ही भावना और ऐसा चिन्तन कर्तव्य है । 'सहज शुद्धात्मा की अनुभूति जितना ही मैं हूँ, मेरे स्वसंवेदन में आ रहा हूँ-यही मैं हूँ' – ऐसे सम्यक् चिन्तन में सहज ही आनन्द तरङ्गे हैं और रोमाञ्च होता है.....
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देखो तो सही, इसमें चैतन्य की अनुभूति के कितने रस का घोलन हो रहा है ! ऊपर में जितना वर्णन किया, वहाँ तक तो अभी सविकल्पदशा है । इस चिन्तन में जो ' आनन्दतरङ्ग उठतीं हैं, वह निर्विकल्प अनुभूति का आनन्द नहीं है परन्तु स्वभाव की ओर के उल्लास का आनन्द है, शान्तपरिणाम का आनन्द है; और इसमें स्वभाव की ओर के अतिशय प्रेम के कारण रोमाञ्च हो उठता है । रोमाञ्च अर्थात् विशेष उल्लास; स्वभाव के प्रति विशेष उत्साह । जैसे संसार में भय का या आनन्द का कोई विशिष्ट खास प्रसङ्ग बनने पर रोम-रोम उल्लसित हो जाता है, उसको रोमाञ्च हुआ कहते हैं; वैसे यहाँ स्वभाव के निर्विकल्प - अनुभव के खास -विशिष्ट प्रसङ्ग में धर्मी को आत्मा के असंख्यप्रदेश में स्वभाव के
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