________________
www.vitragvani.com
62]
[सम्यग्दर्शन : भाग-6
शुद्धात्मप्रतीति वर्तती है। शुद्धात्मा से विरुद्ध किसी भाव में उसे कभी आत्मबुद्धि नहीं होती। जब से सम्यग्दर्शन हुआ, तब से ज्ञान इस राग से पृथक् काम करने लगा; इसलिए सम्यग्दृष्टि जो कुछ जानता है, वह सब सम्यग्ज्ञान है।
कोई कहे-'धर्मी हुआ और आत्मा को जाना, इसलिए पर का भी सब जानपना उसे हो जाये' तो कहते हैं कि नहीं; पर को -सबको जान ही ले, ऐसा नियम नहीं है। उघाड़ होवे, तद्नुसार जानता है; वह कदाचित् उस प्रकार का उघाड़ न होने के कारण डोरी को सर्प इत्यादि प्रकार से अन्यथा जाने, तथापि डोरी या सर्प दोनों से भिन्न मैं तो ज्ञान हूँ-ऐसा स्व-पर की भिन्नता का ज्ञान तो उसे यथार्थ ही रहता है, वह हटता नहीं है। डोरी को डोरी जाना होता तो भी, उससे मैं भिन्न हूँ-ऐसा जानता और डोरी को सर्प जाना तो भी उससे मैं भिन्न हूँ-ऐसा जानता है, इसलिए स्व-पर की भिन्नता जाननेरूप सम्यक्पने में तो कोई अन्तर नहीं पड़ा है।
आत्मा का जानपना हो, इसलिए पर का सब जानपना तुरन्त ही प्रगट हो जाये-ऐसा कोई नियम नहीं है।
जहाँ शुद्धात्मा का श्रद्धान है, वहाँ सम्यग्ज्ञान है; जहाँ शुद्धात्मा का श्रद्धान नहीं वहाँ मिथ्याज्ञान है; इसलिए बाहर का जानपना कम हो तो उसका ज्ञानी को खेद नहीं और बाहर का जानपना विशेष हो तो उसकी ज्ञानी को महिमा नहीं। महिमावन्त तो आत्मा है
और वह जिसने जान लिया, उस ज्ञान की महिमा है। अहो! जगत् से भिन्न मेरे आत्मा को मैंने जान लिया है, तो मेरे ज्ञान का प्रयोजन मैंने साध लिया है-ऐसे निजात्म-ज्ञान से ज्ञानी सन्तुष्ट है-तृप्त है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.