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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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उ- हाँ; धर्मी को गृहस्थपने में भी आत्मा का अनुभव और ध्यान होता है, उसके बिना सम्यग्दर्शन ही सम्भव नहीं। गृहस्थ को पाँच गुणस्थान कहे हैं, उनमें चौथे गुणस्थान से ही आत्म-अनुभव होता है, तभी से जीव सच्चा जैनधर्मी होता है और पश्चात् व्रती होकर पञ्चम गुणस्थान की शुद्धता प्रगट करने पर उसे श्रावकधर्मी कहा जाता है । मुनिदशा तो उससे भी उत्कृष्ट है । सम्यग्दर्शन तथा आत्म-अनुभव के बिना ऐसी कोई दशा नहीं होती।
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