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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
खान ऐसी तीर्थङ्करप्रकृति को भी वह उत्तम धर्मात्मा प्राप्त करता है।
* अधिक क्या कहना? जगत में जितने सुख हैं, वे सब सर्वोत्कृष्टरूप से सम्यग्दृष्टि को प्राप्त होते हैं। * एतत् समयसर्वस्वम् एतत् सिद्धान्तजीवितम्।
एतत् मोक्षगतेः बीजं सम्यक्त्वं विद्धि तत्त्वतः॥ विधिपूर्वक उपासित किया गया यह सम्यक्त्व, वह समय का सर्वस्व है-सर्व शास्त्रों का सार है, वह सिद्धान्त का जीवन है - प्राण है और वही मोक्षगति का बीज है।
सम्यक्त्व है वह सार है, है समय का सर्वस्व वह। सिद्धान्त का जीवन वही और मोक्ष का है बीज वह। विधि जानकर बहुमान से आराधना सम्यक्त्व को। सर्व सौख्य ऐसे पाओगे आश्चर्य होगा जगत को॥
* शुद्ध सम्यक्त्व के आराधक धर्मात्मा को मोक्षसुख प्राप्त होता है, वहाँ स्वर्ग की क्या बात?
*निरतिचार सम्यक्त्व के धारक को तीन लोक में अलभ्य क्या है ? जगत में उसे कोई अलभ्य नहीं है।
* सम्यग्दर्शन के प्रताप से मुनियों को ऐसा मोक्षसुख होता है कि जो स्वयंभू है; असारभूत ऐसे इन्द्रिय-विषयों से जो पार है, देहादि भार से जो रहित है, उपमारहित है, अत्यन्त सार है और संसार से पार है; रोग-जन्म-शङ्का-बाधारहित है।
* अहो! यह सम्यग्दर्शन सकल सुख का निधान है, स्वर्ग -मोक्ष का द्वार है। नरक गृह को बन्द करनेवाला किवाड़ है, कर्मरूपी हाथी को नाश करने के लिये सिंह समान है, दुरित वन
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