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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
* सम्यक्त्व से अलंकृत देह भी देवों द्वारा पूज्य है परन्तु सम्यक्त्वरहित त्यागी भी पद-पद पर निन्दनीय है।
* एक बार सम्यक्त्व को अन्तर्मुहूर्तमात्र भी ग्रहण करके, कदाचित् जीव उसे छोड़ भी दे तो भी निश्चित् वह अल्प काल में (पुनः सम्यक्त्वादि ग्रहण करके) मुक्ति प्राप्त करेगा।
* जिस भव्य को सम्यक्त्व है, उसके हाथ में चिन्तामणि है, उसके घर में कल्पवृक्ष और कामधेनु है।
* इस लोक में निधान की तरह सम्यक्त्व, भव्य जीवों को सुखदाता है; वह सम्यक्त्व जिसने प्राप्त किया, उसका जन्म सफल है।
* जो जीव, हिंसा छोड़कर, वन में जाकर अकेला बसता है और सर्दी-गर्मी सहन करता है परन्तु यदि सम्यग्दर्शनरहित है तो वन के वृक्ष जैसा है।
* सम्यक्त्वरहित जीव, दान-पूजा-व्रतादिक जो किञ्चित् पुण्य करते हैं, वे सर्व विफल हैं... विरुद्ध फलवाले हैं।
* दृष्टिहीन जीव किञ्चित् दया-दानादि पुण्य करके उसके फल में इन्द्रियभोग पाकर वापस भव-भ्रमण में भटकता है।
* सम्यक्त्व के बल से जो कर्म सहज में नष्ट होते हैं, वे कर्म सम्यक्त्व के बिना घोर तप से भी नष्ट नहीं होते।
* सम्यक्त्वादि से विभूषित गृहस्थपना भी श्रेष्ठ है क्योंकि वह व्रत-दानादि से संयुक्त है और भावी निर्वाण का कारण है।
* मुनि के व्रतसहित, सर्वसङ्गरहित, देवों से पूज्य ऐसा निर्ग्रन्थ
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