SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 182] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 लगती है कि बस, मेरा ऐसा आत्मस्वरूप है, उसे अब किसी भी यत्न से मैं जान लूँ और अनुभव में ले लूँ। इसके बिना मुझे और कहीं भी शान्ति नहीं होगी।अब तक मैं निज को भूलकर परेशान हुआ परन्तु अब भवकटी करके मोक्ष को साधने का अवसर आ चुका है। -इस प्रकार आत्मा की सच्ची जिज्ञासापूर्वक वह जीव, तत्त्वज्ञान का अभ्यास करता है। मैं कौन हूँ? पर कौन है ? हित क्या है? अहित क्या है ? इस प्रकार वह भेद का अभ्यास करता है; आत्मा को देहादि से भिन्न लक्ष्य में लेकर अपने परिणाम को बार -बार आत्मसन्मुख मोड़ने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये उस मुमुक्षु का रहन-सहन तथा विचारधारा सतत एक ही आत्मवस्तु की ओर केन्द्रित होने लगती है; अतः उसका रहन-सहन दूसरे जीवों से भिन्न प्रकार का होता है। उसे आत्मा के सिवा अन्यत्र कहीं रस नहीं आता। सर्वत्र नीरसता मालूम होती है; उसे तो बस एक आत्मसन्मुख होना ही सुहाता है। उसके परिणाम में एक प्रकार का परिवर्तन हो जाता है। वह भगवान का दर्शन-पूजन-स्वाध्याय-चिन्तन-मुनिसेवा-दान आदि कार्यों में प्रवर्तता है, परन्तु उसमें भी आत्मा को कैसे समझू–यही ध्येय मुख्य रखता है। इस प्रकार सतत आत्मजागृति के द्वारा उस ओर वह आगे बढ़ता है। कभी-कभी आत्मा में नवीन भावों की स्फरणा होने पर, उसको आन्तरिक उत्साह उछल पड़ता है, उसमें से चैतन्य की चिनगारी झलक उठती है। अनादि से नहीं जाने हुए आत्मा को जानने से उसे परम उल्लास और अपूर्व तृप्ति होती है कि अहो! मुझे अपना ऐसा अद्भुत निजपद प्राप्त हुआ। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy