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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
भेदविज्ञान जग्यो जिन्हके घट, शीतल चित्त भयो जिम चन्दन। केली करे शिव मारग में; जगमांहि जिनेश्वर के लघुनन्दन॥ सत्यस्वरूप सदा जिन्हके प्रकट्यो अवदात मिथ्यात निकंदन। शान्तदशा तिन्हकी पहिचानी, करे कर जोरी बनारसी वंदन॥
अपने अचिन्त्य आत्मवैभव को निज में देखकर धर्मी परम तृप्ति का अनुभव करता है। अहो! आत्मा का पूर्ण वैभव हस्तगत हो गया (-अनुभव में आ गया) उसके समक्ष संसार के अन्य वैभव अत्यन्त तुच्छ दिखते हैं। वह सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा कदाचित् गृहस्थ भी हो, परिवारसहित हो और व्यापार-रोजगार भी करता हो, किन्तु फिर भी उसकी ज्ञानचेतना उन सबसे जलकमलवत् अलिप्त रहती है; अत: वह कर्मों से लिप्त नहीं होता परन्तु छूटता ही जाता है। यह सब सम्यक्त्व का ही प्रताप है-ऐसा जानकर, हे भव्य जीवो! तुम परम आदरभाव से सम्यक्त्व की आराधना करो और सुखमय जीवन जीओ।।
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