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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [179 में नहीं आयी-ऐसी अपूर्व शान्ति का वहाँ वेदन होता था! बाद में उपयोग, अनुभूति में से बाहर आने पर भी वह उपयोग, रागादि के परिचय से अत्यन्त दूर रहता है-राग की दोस्ती उसने सर्वथा छोड़ दी है; अतः राग के समय भी वह उससे अलग रहता हैऐसे भिन्न (रागरहित) उपयोगस्वरूप से धर्मी सदा निज का अनुभव करता है-श्रद्धा करता है-पहचानता है; अतः राग के समय भी उसके सम्यक्त्वादि भाव जीवन्त रहते हैं, बिगड़ते नहीं। देह से और राग से, सभी से भिन्न उपयोगपरिणमन द्वारा आत्मा को मुक्तरूप से अनुभव करता है। अहो, यह दशा कोई अनुपम अनोखी अद्भुत है। ___-ऐसी स्वानुभवदशा होते ही अन्तर में स्वयं को पक्का निश्चय हो चुका कि अब मैं मोक्ष के मार्ग में हूँ; अब संसार के मार्ग में नहीं हूँ। अब मेरे भव का अन्त आ गया; अब मैं सिद्ध-भगवान के समाज में शामिल हो गया। भले ही मैं छोटा हूँ, अभी मेरा साधकभाव अल्प है, तो भी मैं सिद्धभगवान की जाति का ही हूँ। अनुभव में से बाहर निकलने के बाद जो विकल्प उठता है, उससे ज्ञान को भिन्न ही जानता है; अतः ज्ञान स्वयं निर्विकल्प ही रहता है। वह ज्ञान और विकल्प की एकता नहीं करता, ऐसा उसका अकर्ताभाव है। ज्ञानभाव को ही करता हुआ, वह सदा तृप्त और प्रसन्न-प्रशान्त रहता है। ज्ञान के प्रताप से उसका चित्त बिल्कुल शान्त होकर, कषायरहित शीतल चन्दन के समान शोभायमान होता है और जिनदेव के मोक्षमार्ग में वह आनन्द-सह क्रीड़ा करता है-ऐसा वह सम्यग्दृष्टि वन्दनीय है Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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