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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [169 दुःखों से त्रस्त जिज्ञासु, शान्ति का पिपासु होकर 2 शीघ्रता से आनन्दधाम की ओर दौड़ता है। [सम्यक्त्व जीवन लेखमाला : लेखांक 13] U सम्यक्त्व के लिये प्रयत्नशील आत्मा प्रथम इतना विश्वास करता है कि जगत में सुख का धाम यदि कोई हो तो वह मेरा चैतन्यपद ही है। ऐसे स्व-विश्वास के बल पर जैसे-जैसे अन्तर में उसकी लगन बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आनन्द का धाम उसको अपने भीतर में निकट ही निकट दिखने में जाता है; और अन्त में, उसकी लगन की पराकाष्टा होने पर, जिस प्रकार तृषातुर हिरन, पानी का सरोवर देखते ही उस तरफ दौड़े, उसी प्रकार उसकी परिणति वेगपूर्वक शीघ्रता से आनन्दमय स्वधाम में प्रविष्ट होकर सम्यक्त्व से आनन्दित होती है। सम्यग्दर्शन होने के पूर्व आत्मसन्मुख जीव का रहन-सहन तथा विचारधारा किस प्रकार की होती है ? और सम्यग्दर्शन होने के बाद उसका रहन-सहन तथा विचारधारा किस प्रकार की होती है? – यह जानना जिज्ञासु के लिये बहुत उपयोगी और आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि के अन्तर में विद्यमान भेदज्ञान के भावों को कोई विरले ही पहचानते हैं, परन्तु जो पहचानते हैं, वे निहाल हो जाते हैं। ___ जिसकी अन्तरङ्ग परिणति चैतन्य की शान्ति के लिये तड़प रही है, चौबीसों घण्टे सतत जिसको आत्मस्वरूप की ही लगन है, कषायों की अशान्ति से जो अत्यन्त थका हुआ है, जिसका वैरागी हृदय भव-तन-भोगों से पार ऐसे कोई परमतत्त्व को खोज रहा है, और इसके लिये सर्व परभावों से दूर... अति दूर ऐसी निज -चैतन्यगुफा में प्रवेश करने के लिये तत्पर हुआ है, सच्ची शान्ति Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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