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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
आत्मस्वरूप को जानने की जिज्ञासा रहती है; और उसे जानने के लिये अपने समस्त उद्यम को उसी दिशा में जोड़ता है। किसी भी उपाय से आत्मस्वरूप के ज्ञान का सम्पादन करना—ऐसा जो जिनवाणी का उपदेश है, उसमें वह रस लेने लगता है:
'तास ज्ञान की कारन स्व-पर विवेक बखानो;
कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो।' मेरा आत्मा किस प्रकार अपने धर्मस्वरूप होवे, मुझे सम्यग्ज्ञान -सम्यग्दर्शन तथा आत्मशान्ति कैसे प्राप्त हो?-उसी का रटन रहता है। स्वसन्मुख होकर आत्मा को प्रत्यक्ष किये बिना, बाहर का अभ्यास जीव ने अनन्त बार किया, और व्यवहारधर्म में सन्तोष कर लिया है; परन्तु आत्मा की प्रत्यक्षता के बिना अकेला बाहरी ज्ञान, वह वास्तव में ज्ञान ही नहीं है; अत: जब तक मेरा आत्मा मेरे प्रत्यक्ष वेदन में न आवे, तब तक मैंने सचमुच कुछ जाना ही नहीं है; इस प्रकार जीव को जब तक अपना अज्ञानपन न दिखे, तथा अन्य परलक्ष्यी जानकारी में अपनी अधिकता मानकर सन्तुष्ट हो जाए, तब तक आत्मा की अनुभूति का सत्यमार्ग जीव को प्राप्त नहीं होता। ___ अन्तर में परमस्वभाव से भरपूर भगवान आत्मा है, उसकी सन्मुख होने से ही परमतत्त्व की प्राप्ति होती है और मोक्षमार्ग खुलता है। आत्मा की सम्मुख देखे बिना, अर्थात् स्वसंवेदन किये बिना, अज्ञानदशा में ऊँचे से ऊँचे शुभभाव भी जीव ने किये, अनेक शास्त्रों का पठन भी किया, किन्तु इससे आत्मकल्याण का मार्ग जरा भी प्राप्त नहीं हुआ
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