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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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तब बादशाह ने कहा-देखो सेठजी! पुण्य-पाप को या परभव को तो तुम मानते नहीं हो और जब मैं इस बालक को खाऊँगा, तब मेरी क्षुधा मिटकर मुझे साता होगी; तब फिर इसमें बुरा क्या हुआ? यदि बुरा हो तो उससे मुझे दुःख होना चाहिए था। उसके विरुद्ध इसमें तो मेरी भूख का दुःख मिटता है! __ बादशाह का यह कुतर्क सुनते ही सेठ तो दंग रह गया। वह गहरे विचार में डूब गया... उसकी आँखें खुल गयी; तत्क्षण वह नास्तिक से आस्तिक बन गया। यदि पुत्र को बचाना हो तो, पूर्वजन्म का, तथा पूर्वजन्म के पुण्य-पाप के फल का स्वीकार किये बिना अन्य कोई मार्ग ही नहीं रहा। अन्त में, जैनसिद्धान्त अनुसार सुने हुए तत्त्व का उसे स्वीकार करना पड़ा। उसने बादशाह से कहा-सुनिए जहाँपनाह ! मेरे पुत्र को खाने से आपकी भूख का दुःख मिटेगा-यह बात आपकी सत्य नहीं है; जीव को सातारूप सुख अथवा असातारूप दुःख, अपने-अपने पूर्वजन्मकृत पुण्य -पाप के अनुसार होता है; आप जो साता होने का कह रहे हो, वह साता, पुत्र के मांसभक्षण का जो तीव्र कषायभाव है, उसके फल में तो भयङ्कर आकुलता तथा भविष्य में नरकादि की अनन्त असाता आयेगी। अत: ऐसे तीव्र पाप परिणाम को आप छोड़ दीजिये।
हे बादशाह ! आपकी क्षुधा मिटती है, वह कहीं माँस के खाने से नहीं मिटती परन्तु उस प्रकार के साताकर्म के उदय से मिटती है; वर्तमान में माँस खाने का जो परिणाम है, वह तो महान पापरूप है, उसके फल में तो अशुभकर्म बंधेगा तथा महान दु:ख मिलेगा। पूर्वभव में जो पुण्य किया, उसका फल अभी दिखता है। कहीं वर्तमान पाप का यह फल, जीव भूत - भविष्य में नित्य रहनेवाला,
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