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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [131 -प्रशंसा करते हैं; किसी के प्रति ईर्षाभाव नहीं रखते। शास्त्र के प्रति, धर्मस्थानों के प्रति, एवं लोक-व्यवहार में भी विनयविवेकपूर्वक योग्य रीति से वर्तते हैं; किसी के प्रति अपमान या तिरस्कारपूर्ण वर्तन नहीं करते। ___21. पापक्रिया से रहित : कुदेव-कुगुरु के सेवनरूप मिथ्यात्वादि पापों का तथा माँसादि अभक्ष्य के भक्षणरूप तीव्र हिंसादि पापों का तो सर्वथा त्याग कर दिया है, तदुपरान्त आरम्भ -परिग्रह सम्बन्धी जो पापक्रियाएँ हैं, उन्हें भी छोड़कर निर्दोष शुद्ध जीवन के अभिलाषी हैं। अरे, ऐसा उत्तम जैनधर्म तथा ऐसा अद्भुत आत्मस्वरूप, उसे पाकर अब कोई पाप मुझे शोभा नहीं देता; इस प्रकार अव्रतजन्य पापों से अत्यन्त भयभीत रहते हैं । मेरे जीवन में कोई छोटा-सा भी पाप न हो, और वीतरागता से उज्ज्वल मेरा जीवन हो - ऐसी भावना रहती है। इस प्रकार श्रावक इन पुनीत 21 गुणों के धारक होते हैं । मुमुक्षु को भी इनमें से प्रत्येक गुण के स्वरूप का विचार करके अपने में भी इन गुणों को धारण करना चाहिए; इससे जीवन पवित्रता से शोभायमान होगा। वीतरागी सन्तों की ऐसी पुकार सुनकर... स्वानुभूतिपूर्वक होनेवाला सम्यग्दर्शन तो मोक्ष का द्वार है उसके द्वारा ही मोक्षमार्ग खुलता है। उसका उद्यम ही प्रत्येक मुमुक्षु का पहला कार्य है और प्रत्येक मुमुक्षु से हो सकता है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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