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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग -6 ] [ 123 बाद की पर्याय में व्याप्त नहीं है; मति - श्रुतज्ञान छूटकर केवलज्ञान हुआ, वहाँ उस केवलज्ञान में मति - श्रुतज्ञानपर्याय व्याप्त नहीं है; इसलिए पर्याय के खण्ड-खण्ड के समक्ष देखना नहीं रहता। दो समय की पर्यायें कभी एक नहीं होती। * • तो अब कौन बाकी रहा - कि जो आत्मा की विशेष ज्ञानपर्याय में व्यापक है ? और वह विशेष ज्ञानपर्याय जिसे अवलम्ब कर प्रवर्तती है ? विशेष के समय ही आत्मा का ज्ञानसामान्यरूप महान स्वभाव है, वही विशेषों में व्याप्त है । जब देखो तब वह अपने में विद्यमान ही है । अनादि - अनन्त काल की जो विशेष ज्ञानपर्यायें (जिसमें भव्य जीव की अनन्त केवलज्ञानपर्यायें भी आ जाती हैं) -उन समस्त पर्यायों में व्याप्त, ऐसा एक ज्ञानस्वभावी आत्मा मैं हूँऐसा धर्मी जीव स्वसंवेदन- प्रत्यक्ष से अपने आत्मा को जानता है अपने सामान्य और विशेष दोनों में उसे ज्ञान ही दिखता है । I * ऐसा ज्ञानस्वभावी आत्मा, वह जैनशासन का महान रत्न है; वह जिसने जान लिया, उसने समस्त जैनशासन को जान लिया। जो आत्मा के स्वभाव को नहीं जानता, वह सर्वज्ञदेव को या गुरु को या शास्त्र के तात्पर्य को भी नहीं जान सकता। अपने ज्ञान में जहाँ अपना सर्वज्ञस्वभाव जाना, वहाँ पंच परमेष्ठी की या नवतत्त्वों की सच्ची पहिचान हुई। ऐसे स्वभाव को जाननेवाली श्रुतज्ञानपर्याय में भी अतीन्द्रियशान्तिसहित की कोई परम अद्भुत ताकत भरी है और धर्मी को उस पर्याय में भी अपना अखण्ड सामान्य ज्ञानस्वभाव व्याप्त दिखता है । * अरे! अपनी पर्याय में व्याप्त अपने ज्ञानस्वभाव को भी जो Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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