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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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सर्वज्ञस्वभावी आत्मा
दिव्य ज्ञानस्वभावी आत्मा, वह जैनशासन का महान रत्न है। जिसने उसे जान लिया, उसने समस्त जैनशासन को जान लिया।
उपयोगस्वरूपी आत्मा, सर्व को जाननेवाला, ऐसा सर्वज्ञस्वभावी है। ऐसे अपने सर्वज्ञस्वभाव को जो न जाने-न अनुभवे, वह सर्व पदार्थों को भी नहीं जान सकता।
आत्मा सर्वज्ञस्वभावी है-ऐसा जो स्वसंवेदन से जानता है, वह जीव, समस्त जीवों को ज्ञानस्वरूपी जानता है। ज्ञान-अपेक्षा से सभी जीव साधर्मी-समानधर्मी हैं।
सर्व जीव हैं ज्ञानमय, ऐसा जो समभाव;
वह सामायिक जानना, कहे श्री जिनराय। जो ज्ञानसामान्य है, वह अपने अनन्त ज्ञानविशेषों में व्यापनेवाला है; ज्ञानसामान्य स्वयं अनन्त विशेषोंरूप परिणमता है। केवलज्ञान अनन्त विशेषों रूप महान ज्ञान है, उसमें ज्ञानस्वभाव व्याप्त है। यद्यपि मति-श्रुतज्ञान में भी अनन्त विशेष हैं, परन्तु केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट है; समस्त पदार्थों का प्रतिभास जिसमें एक साथ भरा हैऐसा अद्भुत अनन्त विशेषोंस्वरूप केवलज्ञान में सर्वज्ञस्वभावी महा सामान्यज्ञान व्याप्त है और वह आत्मा का स्वभाव ही है। - जो ऐसे आत्मा को स्वानुभव-प्रत्यक्ष नहीं करता, उसे सर्वज्ञपना नहीं होता।
(प्रवचनसार की) 80 वीं गाथा में कहे अनुसार अरिहन्तदेव
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